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________________ १८ नन्दीसूत्रम् छाया-२. निमित्त-अर्थशास्त्रे च, लेखे गणिते च कूपाश्वौ च । मण-ग्रन्थ्य-गदाः, रथिकश्च गणिका च ॥७४॥ १३ . y मा मूलम्--३. सीमा साडी दीहं च तणं, अवसव्वयं च कुंचस्स । निव्वोदए य गोणे, घोडग पडणं च रुक्खाओ ॥७५॥ छाया–३. शीता शाटी दीर्घञ्च तृणम्, अपसव्यञ्च क्रोञ्चस्य । नीव्रोदकं च गौ, घोटक-(मरणं) पतनञ्च वृक्षात् ॥७॥ . . १. निमित्त-किसी नगर में एक सिद्ध पुत्र रहता था। उसके दो शिष्य थे। सिद्धपुत्र ने उन दोनों को समान रूप से निमित्त शास्त्र का अध्ययन कराया। एक शिष्य बहुमान पूर्वक गुरु की आज्ञा का पालन करता, गुरु जिस प्रकार भी उसे आज्ञा देते, वह उसी प्रकार स्वीकार कर लेता और अपने मन में निरन्तर मनन-चिन्तन करता रहता था। विमर्श करते समय यत्किचित सन्देह उत्पन्न होने पर गुरुचरणों में उपस्थित होकर, विनययुत शिर नमाकर, वन्दन करके सम्मान पूर्वक अपनी शंका का समाधान करता । इस तरह निरन्तर विचार करते रहने से निमित्त शास्त्र का अभ्यास करते-करते उसे तीक्षण बुद्धि उत्पन्न हो गई। परन्तु दूसरे शिष्य की सभी प्रवृत्तियां भिन्न थीं। अतः वह गुणविकल था। एक समय वे दोनों गुरु की आज्ञा से किसी ग्राम में जा रहे थे। रास्ते में दोनों ने बड़े-बड़े पाओं के चिह्न देखे । पदचिह्नों को देखकर विचारशील विनयवान् शिष्य ने अपने गुरुभ्राता से पूछा-"ये पाओं के चिह्न किसके हैं ?" उत्तर में वह बोला-"मित्रवर ! यह भी कोई पूछने जैसी बात है ? यह स्पष्ट ही हाथी के पदचिह्न हैं।" विमृश्य भाषी शिष्य ने कहा-"भैया ! ऐसा मत कहो, ये पदचिह्न हस्तिनी के हैं, और वह हस्तिनी वाम नेत्र से काणी है. उस पर कोई रानी सवार है तथा वह सधवा है और गर्भवती भी है एवं आजकल में ही उसके प्रसव होने वाला है, उसे एक पुत्र का लाभ होगा।" इस प्रकार कहने पर अविचारशील बोला--"तुम यह किस आधार से कह रहे हो !" विनयी बोला-"विश्वास का होना ही ज्ञान का सार है और यह तुम्हें आगे जाकर प्रत्यक्ष में स्पष्ट हो जायेगा।' ऐसा कहते हुए वे दोनों अपने निर्दिष्ट ग्राम में पहुंच गए । उन्होंने ग्राम के बाहिर बहुत बड़े सरोवर के किनारे पर रानी के दल-बल का आवास (पड़ाओ) देखा। उधर वाम नेत्र से काणी एक हस्तिनी दिखाई दी। उसी समय किसी दासी ने आकर मन्त्री से कहा-"महाराज को बधाई दीजिए, उन्हें पुत्र का लाभ हुआ है।" यह सब कुछ देख कर विनीत शिष्य ने दूसरे से कहा-"आपने दासी के वचन सुने ?" वह बोला-"मैंने सामान लिया, आपका ज्ञान अन्यथा नहीं है।" इसके बाद दोनों हाथ-पैर धोकर तालाब के किनारे व सोचे विश्राम के लिए बैठ गए। उसी समय एक वृद्धा सिर पर पानी का घड़ा रखे 30
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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