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________________ १८० नन्दीसूत्रम् स्त्री पुरुष की आंखों से ओझल हो कर शरीरचिन्ता के लिए बैठ गई। उधर उसी स्थल पर जहाँ पुरुष रथ पर बैठा अपनी स्त्री की प्रतीक्षा कर रहा था, वहाँ एक व्यन्तरी का स्थान था । पुरुष के रूप और यौवन पर वह व्यन्तरी अत्यन्त आसक्त हो गई। उसकी स्त्री को दूर देश में देखकर व्यन्तरी ने उसकी स्त्री जैसा रूप बनाया और रथपर आकर सवार हो गई। स्त्री जब शौच से निवृत्त हो कर सामने आती हुई दिखाई दी तो व्यन्तरी ने पुरुष को कहा कि-"वह सामने कोई व्यन्तरी मेरा रूप धारण करके आ रही है। अतः आप रथ को द्रुत गति से ले चलें।" स्त्री ने जब पास आकर देखा तो वह चीखमार कर रोने लगी । व्यन्तरी के कहने पर पुरुष रथ को ले चला और पीछे से उसकी स्त्री रोती हुई इसके पीछे २ भागने लगी और रो-रो कर कहने लगी कि-"यह कोई व्यन्तरी बैठी है, इसे उतार कर मुझे ले चलो।" पुरुष । असमञ्जस में पड़ गया कि क्या करूं ?। दोनों स्त्रियाँ परस्पर विवाद करने लग पड़ीं और अपने-अपने को पुरुष की पत्नी कह रही थीं। पुरुष ने रोती आ रही स्त्री के कहने पर रथ को जरा शनैःशन रोकना आरम्भ किया। इस प्रकार दोनों स्त्रियां लड़ती हुईं अगले ग्राम के पास पहुंच गयीं। पुरुष नहीं समझ रहा था कि इन समाकृति वाली दोनों में मेरी कौन सी है ? अन्त में यह झगड़ा पंचायत में गया। पुरुष और दोनों स्त्रियों के कहने पर न्याय करने वाले ने अपनी बुद्धि से काम लिया। दोनों स्त्रियों को पृथक् पृथक् कर पुरुष को दूर - स्थान पर बैठा दिया और कहा-"कि जो स्त्री पहिले पुरुष को जा कर छू लेगी, वह उसी का पति है।" स्त्री तो भाग कर पुरुष के पास पहुँचने का प्रयत्न कर रही थी। परन्तु व्यन्तरी ने वैक्रिय शक्ति से अपने हाथ को लम्बा करके वहाँ से ही छू लिया । तब न्याय करने वालों ने समझ लिया कि अमुक स्त्री है और अमुक व्यन्तरी । इस प्रकार न्यायधीश ने पति के पास उसकी स्त्री को सौंप दिया और व्यन्तरी को वहां से भगा दिया। यह न्याय कर्ता की औत्पत्तिकी बुद्धि का उदाहरण है। १५. स्त्री-एक समय मूल देव और पुण्डरीक दोनों मित्र कहीं इकटर मार्ग में जा रहे थे। उसी मार्ग से एक पुरुष अपनी स्त्री के साथ कहीं पर जा रहा था। पुण्डरीक ने दूर से ही पुरुष के साथ जाती हुई स्त्री को देखा और वह उस पर मुग्ध हो गया। पुण्डरीक ने अपनी दुर्भावना को अपने मित्र मूलदेव. के समक्ष प्रकट किया और कहा-“यदि यह स्त्री मुझे मिल जाए तो मैं जीवित रहूंगा अन्यथा मेरी मृत्यु हो जायेगी।" तब कामासक्त पुण्डरीक को मूलदेव ने कहा-"आतुर मत हो, मैं ऐसा करूंगा कि तुझे स्त्री मिल जाए।" वे दोनों मित्र, स्त्री और पुरुष से अलक्षित शीघ्र ही अन्यमार्ग से उसी रास्ते पर पहुँच गए, जिस पर स्त्री-पुरुष दोनों जा रहे थे । मूलदेव ने पुण्डरीक को मार्ग से दूर एक बनकुञ्ज में बैठा दिया और स्वयं दम्पति का मार्ग रोक कर उस पुरुष से कहने लगा-'ओ महाभाग ! मेरी स्त्री के इस पास की झाड़ी में बच्चा पैदा हुआ है, इसलिए उसे देखने के लिए अपनी स्त्री को क्षणमात्र के लिए वहां भेज दीजिए।" अपनी स्त्री को उसने भेज दिया और वह मूलदेव के पास चली गई। वह क्षण मात्र वहाँ ठहर कर वापिस लौट आई। आकर मूलदेव का वस्त्र पकड़ कर हंसती हुई कहने लगी-"आपको मुबारिकवाद ! बहुत सुन्दर बच्चा पैदा हुआ है।" यह मूलदेव और स्त्री की औत्पत्तिकी बुद्धि का उदाहरण है। १६. पति-दो भाइयों की एक सम्मिलित पत्नी थी। लोगों में इस बात की बड़ी चर्चा थी"अहो ! इस स्त्री का अपने दोनों पतियों पर समान राग है।" यह बात बढ़ते-बढ़ते राजा तक भी जा पहुंची। राजा भी वह बात सुन कर बड़ा विस्मित हुआ। तब मन्त्री ने कहा- "देव ! ऐसा कदापि नहीं
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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