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सिद्ध-केवलज्ञान
से होता है, या निर्हेतु से ? इसी प्रकार यदि पहले दर्शन उत्पन्न होता है, तो वह किसी हेतु से होता है या निर्हेतु से ? इन प्रश्नों का उत्तर विवादास्पद होने से उपादेय नहीं। अतः युगपदुपयोगवाद ही निर्विवाद एवं आगम सम्मत है कहा भी है।
"इहराऽऽईनिहणत्तं. मिच्छाऽऽवरणक्खनो त्ति व जिणस्स । इतरेतरावरणया, अहवा निक्कारणावरणं ॥ तह य असम्वएणुत्तं, असम्वदरिसित्तणप्पसंगो य । एगंतरोवयोगे जिणस्स, दोसा बहुविहा य॥"
एकान्तर-उपयोगवादी का उत्तर पक्ष १. केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दोनों सादि-अनन्त हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं, किन्तु यह कथन लब्धि की अपेक्षा से समझना चाहिए न कि उपयोग की अपेक्षा से। मति-श्रुत और अवधिज्ञान की लब्धि ६६ सागरोपम से कुछ अधिक है, जब कि उपयोग किसी एक में अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं रहता है । इस समाधान से उक्त दोष की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है। ____२. जो यह कहा जाता है कि निरावरण ज्ञान-दर्शन में युगपत् उपयोग न मानने से आवरणक्षय मिथ्या सिद्ध हो जाएगा, तो यह कथन भी हृदयंगम नहीं होता । क्योंकि किसी विभंगज्ञानी को नैसर्गिक सम्यक्त्व उत्पन्न होते ही मति, श्रुतं और अवधि ये तीन ज्ञान एक साथ उत्पन्न होते हैं, यह शास्त्रीय विधान है, किन्तु उपयोग भी सब में युगपत् ही हो, यह कोई नियम नहीं । चार ज्ञान धरता को जैसे चतर्जानी कहा जाता है, किन्त उसका उपयोग सबमें नहीं, किसी एक में ही रहता है। अतःजानने तथा देखने का समय एक नहीं, भिन्न-भिन्न हैं।'
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३. एकान्तर-उपयोग को इतरेतरावरणता नामक दोष कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि केवलज्ञान और केवलदर्शन सदैव अनावरण रहते हैं, इनको क्षायिक लब्धि भी कहते हैं और उनमें से किसी एक में चेतना का प्रवाहित हो जाना, इसे ही उपयोग कहते हैं। उपयोग जीव का असाधारण गुण है, वह किसी कर्म का फल नहीं है। उपयोग चाहे छद्मस्थ का हो या केवली का, ज्ञान में हो या दर्शन में, वह अन्तमुहर्त से अधिक कहीं भी नहीं ठहर सकता । केवली का उपयोग चाहे ज्ञान में हो या दर्शन में, जघन्य एक समय [काल के अविभाज्य अंश को समय कहते हैं] उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त । इससे अधिक कालमान उपयोग क नहीं है। छमस्थ का उपयोग जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहत है। उपयोग का स्वभाव बदलने का है. किसी एक में सदा काल भावी नहीं । केवली की कर्मक्षयजन्य लब्धि सदा निरावण रहती है, किन्त उपयोग एक में रहता है । इस विषय को स्पष्ट करने के लिए एक उदाहण दिया जाता है, जैसे एक व्यक्ति ने दो भाषाओं पर पूर्णतया अधिकार प्राप्त किया हुआ है। उन दो भाषों में से किसी एक भाषा में वह धारा प्रवाह बोल सकता है और लिख भी सकता है। जब वह किसी एक भाषा में बोल रहा है, तब दूसरी भाषा लब्धि के रूप रहती है, उस भाषा पर आवरण आगया, ऐसा समझना उचित नहीं है, क्योंकि
१. प्रहापना सूत्र, पद १८ तथा जीवाभिगम | २. प्रज्ञापना सूत्र, पद ३० तथा भगवती सूत्र, श० २५ ।