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नन्दीसूत्रम्
इष्टापत्तिजनक-क्रमवाद युगपद्वादियों का विश्वास है कि केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों उपयोग सादि-अनन्त हैं, इसलिए केवली युगपत् पदार्थों को जानता व देखता है, जैसे कि कहा भी है
"जं केवलाई सादी, अपज्जवसिताई दोऽवि भणिताई।
तो बैंति केई जुगवं, जाणइ पासइ य सम्बएणू ॥" १. उनका कहना है कि एकान्तर-उपयोग पक्ष में सादि-अनन्त घटित नहीं होता , क्योंकि जब ज्ञानोपयोग होता है, तब दर्शनोपयोग नहीं और जब दर्शनोपयोग होता है, तब ज्ञानोपयोग नहीं । इस से उक्त ज्ञान और दर्शन सादि-सान्त सिद्ध होते हैं, जो कि इष्टापत्तिजनक हैं, जब कि सिद्धान्त है-निरावरण दोनों उपयोग सादि-अनन्त हैं।
२. एकान्तर-उपयोग पक्ष में दूसरा दोष मिथ्यावरणक्षय है। छद्मस्थ-उपयोग में कार्य-कारण भाव तथा प्रतिबन्ध्य-प्रतिबन्धक भाव पाया जाता है किन्त क्षायिक भाव में यह नियम नहीं। निरावरण होने पर उक्त दोनों उपयोग एक साथ प्रकाशित होते हैं, जैसे जगमगाते हुए दो दीपकों को निरावरण कर देने से वे एक साथ प्रकाश करते हैं, क्रमशः नहीं। यदि निरावरण होने पर भी वे क्रमशः ही प्रकाशित होते हैं, तो अवारण-क्षय मिथ्यासिद्ध हो जाएगा । अतः केवली युगपत् जानते व देखते हैं । यही मान्यता निर्विवाद एवं निर्दोष है।
३. एकान्तर-उपयोग पक्ष में युगपद्वादी तीसरा दोष इतरेतरावरणता सिद्ध करते हैं। इस का , संधिच्छेद है-इतर+इतर-|-आवरणता । इसका अर्थ है--केवलज्ञान, केवलदर्शन पर आवरण करता है
और केवलदर्शन, केवलज्ञान पर जब ज्ञान-दर्शन ऐकान्तिक तथा आत्यन्तिक निरावरण हो गए, तब उन में से एक समय में एक तो प्रकाश करे और दूसरा नहीं, यह मान्यता दोष पूर्ण है । अतः युगपदुपयोगवाद ही तर्कपूर्ण और निर्दोष है।
४. एकान्तर-उपयोग पक्ष में वे चौथा इष्टापत्तिजनक दोष निष्कारणावरणता सिद्ध करते हैं। उनका इस विषय में यह कहना है कि जब ज्ञान और दर्शन सर्वथा निरावरण हो गए, तब उनमें एक प्रकाश करता है और दूसरा नहीं। इसका अर्थ यह हुआ-आवरण क्षय होने पर भी निष्कारण आवरणता का सिलसिला चालू ही रहता है, जो कि सिद्धान्त को सर्वथा अमान्य है, इस दोष से युगपदुपयोगवाद निर्दोष ही है।
५. एकान्तर-उपयोग के पक्ष में युगपदुपयोगवादी असर्वज्ञत्व और असर्वशित्व सिद्ध करते हैं, क्योंकि जब केवली का उपयोग ज्ञान में है, तब असर्वदर्शित्व और जब दर्शन में उपयोग है, तव असर्वज्ञत्व दोष सिद्धान्त को दूषित करता है । अतः युगपदुपयोगवाद उक्त दोष से निर्दोष है। ...
६. क्षीण मोह गुणस्थान के चरम समय में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय ये तीन कर्म युगपत् ही क्षय होते हैं, ऐसा आगम में मूल पाठ है। तेरहवें गुणस्थान के प्रथम समय में ही जब आवरण युगपत् निवृत्त हुआ, तब ज्ञान-दर्शन भी एक साथ दोनों प्रकाशित होते हैं । एकान्तर-उपयोग पक्ष को दूषित करते हुए युगपदुपयोगवादी कहते हैं, कि केवली को यदि पहले केवलज्ञान होता है, तो वह किसी हेतु
१. उत्तराध्ययन अ० २६