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नदीसूत्रम्
सिद्ध, त्रिसमयसिद्ध, चतुःसमयसिद्ध यावत् दससमय सिद्ध, संख्यातसमवसिद्ध, असंख्यातसमयसिद्ध और अनन्तसमयसिद्ध । इस प्रकार परम्परसिद्ध केवलज्ञान का वर्णन है ।
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वह संक्षेप में चार प्रकार से है, जैसे- द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से । १. द्रव्य से केवलज्ञानी - सर्व द्रव्यों को जानता व देखता 1
२. क्षेत्र से केवलज्ञानी - सर्व लोकालोक क्षेत्र को जानता व देखता है ।
३. काल से केवलज्ञानी - भूत, वर्तमान और भविष्य तीन काल के द्रव्यों को जानता
व देखता है ।
४. भाव से केवलज्ञानी - सर्व भावों
पर्यायों को जानता व देखता है।
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टीका - इस सूत्र में परम्परसिद्ध केवलज्ञान के विषय का विवरण किया गया है जिनको सिद्ध हुए अनेक समय हो चुके हैं, उन्हें परम्परसिद्ध केवल ज्ञान कहते हैं। जिनको सिद्ध हुए पहला ही समय हुआ है, उन्हें अनन्तर सिद्ध केवलज्ञान कहते हैं । अथवा जो वर्तमान समय में सिद्ध हो रहे हैं, वे अनन्तर सिद्ध और जो अतीत समय में सिद्ध हो गए हैं, वे परम्पर सिद्ध कहलाते हैं अथवा जो निरंतर सिद्ध गति को प्राप्त करते हैं, वे अनन्तरसिद्ध और जो अन्तर पाकर सिद्ध हुए हैं, वे परम्परसिद्ध कहलाते हैं। समय उपाधिभेद से अनन्तरसिद्ध और परम्परसिद्ध इस प्रकार दो भेद बनते हैं, किन्तु भवोपाधि भेद से सिद्धों के पन्दरह भेद बनते हैं, जिनका वर्णन अनन्तरसिद्ध केवलज्ञान के प्रकरण में सूत्रकार ने कर दिया है। समयोपाधि भेद से या भवोपाधि भेद से भले ही सिद्ध केवलज्ञान के भेद बतला दिए हैं, वास्तव में यदि देखा जाए तो सिद्धों में तथा केवलज्ञान में कोई अन्तर नहीं है। सिद्ध भगवन्तों का स्वरूप और केवलज्ञान एक समान हैं, विषम नहीं ।
भवस्थकेवलज्ञान और सिद्धकेवलज्ञान
उक्त दोनों अवस्थाओं में केवलज्ञान और वीतरागता तुल्य है, जहां केवल ज्ञान है, वहां निश्चय ही वीतरागता है। वीतरागता के बिना केवलज्ञान का होना नितान्त असंभव है। जैसे केवलज्ञान यादि-अनन्त है, वैसे ही केवलज्ञानी में वीतरागता भी सादि-अनन्त है । इसी कारण वह ज्ञान सदा सर्वदा स्वच्छ-निर्मलअनावरण और तुल्य रहता है। अब सूत्रकार केवलज्ञान में प्रत्यक्ष करने की शक्ति और उसके विषय का संक्षेप से वर्णन करते हैं, जैसे कि
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द्रव्यतः - सभी रूपी - अरूपी, मूर्त-अमूर्त, सूक्ष्म- बादर, जीव-अजीव, संसारी मुक्त, स्व-पर को उपयुक्त दोनों प्रकार के केवलज्ञानी जानते व देखते हैं । वे इन्द्रिय और मन से नहीं बल्कि केवलज्ञान और केवलदर्शन से साक्षात्कार करते हैं।
क्षेत्रतः - वे केवलज्ञान के द्वारा लोक अलोक के क्षेत्र को जानते व देखते हैं । यद्यपि सर्वद्रव्य ग्रहण करने से आकाशास्तिकाय का भी ग्रहण हो जाता है, तदपि क्षेत्र की रूढि से इसका पृथक् उपन्यास किया
गया है ।
कालतः - उपर्युक्त दोनों प्रकार के केवलज्ञानी सर्वकाल को अर्थात् अतीत, अनागत और वर्तमान के सभी समयों को जानते व देखते हैं । अतीत अनागत काल के समयों को भी वर्तमान काल की तरह जानते व देखते हैं ।
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