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सिद्ध-केवलज्ञान हजार वर्ष का, तथा अनन्तकाल प्रतिपाति हुए सिद्ध होने वालों का अन्तर १ वर्ष से कुछ अधिक । यह उत्कृष्ठ अन्तर है, ज० सब स्थान में एक समय का।
१२. अनुसमयद्वार-दो समय से लेकर आठ समय तक निरन्तर सिद्ध होते हैं। १३. गणनाद्वार-एकाकी सिद्ध हो या अनेक उत्कृष्ठ संख्याते हजार वर्ष का अन्तर । १४. अल्पबहुत्वद्वार–पूर्ववत् ।
७. भावद्वार भाव ६ होते हैं-औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक, पारिणामिक और सन्निपातिक । सर्व स्थानों में क्षायिक भाव से सिद्ध होते हैं । इसमें १५ उपद्वार नहीं घटाए हैं, इनका विवरण पूर्ववत् समझना चाहिए।
८. अल्पबहुत्वद्वार सिद्धों में सब से थोड़े, वे हैं जो ऊर्ध्वलोक में ४ सिद्ध होते हैं । हरिवास आदि अकर्मभूमि क्षेत्रों में १० सिद्ध होते हैं । वे उनसे संख्यात गुणा हैं । उन की अपेक्षा स्त्री आदि से २० सिद्ध होते हैं । वे संख्यात
गुणा, क्योंकि' साध्वी का साहरण नहीं होता। उन से पृथक्-पृथक विजयों में तथा अघोलोक में २० सिद्ध , हो सकते हैं, वे संख्यात गुणा होते हैं । उनसे १०८ सिद्ध हुए संख्यात गुणा है । यह अनन्तर सिद्ध केवल ज्ञान का थोकड़ा समाप्त हुआ।
परम्परसिद्ध केवलज्ञान का थोकड़ा जिन्हें सिद्ध हुए दो समय से लेकर अनन्त समय हो गए हैं, उन्हे परम्पर सिद्ध कहते हैं । उनका द्रव्य प्रमाण सात द्वारों में तथा १५ उपद्वारों में अनन्त कहना, परन्तु इनका अन्तर नहीं कहना, क्योंकि काल अनन्त है । सर्व क्षेत्रों में से अनन्त जीव सिद्ध हुए हैं । वे सिद्ध बहुतों की अपेक्षा अनादि हैं ।
अल्पबहुत्वद्वार .१. क्षेत्रद्वार
१. समुद्र से सिद्ध हुए सब से थोड़े, द्वीप सिद्ध उनसे संख्यात गुणा । २. जल से सिद्ध हुए सब से थोड़, स्थल से सिद्ध हुए संख्यात गुणा । ३. ऊर्ध्वलोक से सिद्ध हए सबसे थोडे, अधोलोक से सिद्ध हए उनसे संख्यात गुणा । ४. तिरच्छे लोक से सिद्ध हुए उन से संख्यात गुणा ।
१. समणीमवगयवेयं, परिहार पुलायमप्पमत्तयं । चउदसपुचि जिण आहारगंव, नो कोई साहरन्ति ।
भाव-साध्वी, अवेदी, परिहारविशुद्धचारित्री, पुलाकलब्धिमान, अप्रमत्त-संयत, चतुर्दशपूर्वधर, तीर्थकर और आहारक लब्धि सम्पन्न इन का कोई साहरण नहीं कर सकता ।