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________________ सिद्ध-केवलज्ञान. ६. लिंगद्वार-स्वलिंग में आठ समय तक, अन्यलिंग में चार समय तक, गृहलिंग में उत्कृष्ट निरंतर २ समय तक सिद्ध हो सकते हैं । ७. चारित्रद्वार-जिन्होंने क्रमशः पांच चारित्र पाले हैं, वे उत्कृष्ट चार समय तक, शेष तीन या चार चारित्र की आराधना करने वाले उत्कृष्ट आठ समय तक निरन्तर सिद्ध हो सकते हैं। ८. बुद्धद्वार-बुद्ध बोधित आठ समय तक, स्वयं बुद्ध दो समय तक, साधारण साधु या साध्वी के द्वारा प्रतिबुद्ध हुए चार समय तक निरन्तर सीझ। . १. शानद्वार-मति और श्रुत ज्ञान से केवली हुए दोसमय तक, मति-श्रुत-मनःपर्यवज्ञान से केवली हए चार समय तक, मति-श्रुत; अवधि-मनःपर्यवज्ञान से केवली हए आठ समय तक निरन्तर सिद्ध हो सकते हैं। .. अवगहनाद्वार-उत्कृष्ट अवगहना वाले दो समय तक, मध्यम अवगहना वाले निरन्तर आठ समय तक, जघन्य अवगहना वाले दो समय तक निरन्तर सिद्ध हो सकते हैं। ११. उत्कृष्टद्वार-अप्रतिपाति सम्यक्त्वी दो समय तक,संख्यात एवं असंख्यातकाल-प्रतिपाति उत्कृष्ष चार समय तक, अनन्तकाल प्रतिपाति सम्यक्त्वी उत्कृष्ठ आठ समय तक निरन्तर सिद्ध हो सकते हैं। (शेष चार उपद्वार घटित नहीं होते) ६. अंतरद्वार सिद्धस्थान में सिद्ध होने का कितना अन्तरा पड़े ? १. क्षेत्रद्वार-समुच्चय अढाई द्वीप में विरह ज.१ समय का उ०६मास का । जम्बूद्वीप के महाविदेह और धातकीखण्ड के महाविदेह से उ० पृथक्त्व (२ से 8 तक) वर्ष का, पुष्करार्द्धद्वीप में एक वर्ष से कुछ अधिक काल का अन्तर पड़ सकता है। २. कालद्वार-जन्म की अपेक्षा से-५ भरत, ५ ऐरावत में अन्तर पड़े तो १८ क्रोडाक्रोड सागरोपम से कुछ न्यून' क्योंकि उत्सपिणी काल में चौथे आरक के आदि में २४ वें तीर्थंकर का शासन संख्यात काल तक चलता है, तदनु विच्छेद हो जाता है। अवसर्पिणी काल के तीसरे आरे के अन्तिम भाग में पहले तीर्थंकर उत्पन्न होते हैं, उनका शासन तीसरे आरे में एक लाख पूर्व तक चलता है, इस कारण न्यून कहा है । उस शासन में से सिद्ध हो जाते हैं, उसके व्यवच्छेद होने पर उस क्षेत्र में जन्मे हुए सिद्ध नहीं हो सकते । साहरण की अपेक्षा से उ० अन्तर संख्यात हजार वर्ष का है। ३. गतिद्वार-नरक से निकले हुए सिद्ध होने का उत्कृष्ट अन्तर पृथक्त्व सहस्र वर्ष का, तिर्यंच से निकले हुए सिद्धों का अन्तर पृथक्त्व १०० वर्ष का, तिर्यंची और सुधर्म-ईशान देवलोक के देवों को छोड़ कर शेष सभी देवों से आए हुए सिद्धों का अन्तर १ वर्ष कुछ अधिक, एवं मानुषी का अन्तर, स्वयंबुद्ध होने - १. उत्सर्पिणी का चौथा आर। दो क्रोडाकोड़ सागरोपम का, पांचवां आरा तीन क्रोडाकोड़ सागरोपम का, छठा भारा चार क्रोडाकोड सागरोपम का है | तथा अवसर्पिणी का पहला आरा ४ क्रोडाक्रोड सागरोपम का, दूसरा तीन क्रोडाकोड़ सागरोपम का, तीसरा दो क्रोडाकोड़ सागरोपम का है, यो सब १८ क्रोडाकोड़ सागरोपम हुए, इसमें कुछ न्यून काल तीर्थकर की ऊत्पति का है । ----- - - - - - -
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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