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सिद्ध-केवलज्ञान
५. तीर्थकरद्वार-पुरुष तीर्थकर एक समय में चार, स्त्री तीर्थकर दो सिद्ध हो सकते हैं।
६. बुद्धद्वार-एक समय में प्रत्येक-बुद्ध दस, स्वयंबुद्ध चार बुद्ध-बोधित एक सौ आठ सिद्ध हो सकते हैं।
लिङ्गद्वार-एक समय में गृहलिङ्गी चार, अन्यलिङ्गी दस, स्वलिङ्गी एक सौ आठ सिद्ध हो सकते हैं।
८. चारित्रद्वार-सामायिक, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात चारित्र पालकर एक समय में एक सौ आठ, एवं सामायिक, छेदोपस्थापनीय, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात चारित्र वालों का भी ऐसा ही समझना, पांचों की अराधना करने वाले एक समय में दस सिद्ध हो सकते हैं।
६. ज्ञानद्वार-पूर्व भव की अपेक्षा से एक समय में मति एवं श्रतज्ञान वाले उत्कृष्ट-चार,मति, श्रत व मन:पर्यव ज्ञान वाले दस, चार ज्ञान के धरता केवलज्ञान प्राप्त करके एक सौ आठ सिद्ध हो सकते हैं, अधिक नहीं।
१०. अवगहनाद्वार-एक समय में ज० अवगहना वाले उत्कृष्ट चार, मध्यम अवगहना वाले उत्कृष्ट एक सौ आठ, उत्कृष्ट अवगहना वाले दो सिद्ध हो सकते हैं।
११. उत्कृष्टद्वार-अनन्तकाल के प्रतिपाति पुनः सम्यक्त्व स्पर्श करें तो एक समय में एक सौ आठ, असंख्यातकाल एवं संख्यातकाल के प्रतिपाति दस-दस । अप्रतिपाति सम्यक्त्वी चार सिद्ध हो सकते हैं।
१२. अंतरद्वार-एक समय का अंतर पाकर, दो समय, तीन समय अथवा चार समय अन्तर पाकर सिद्ध हों, इसी क्रम से आगे भी समझना।
१३. अनुसमयद्वार-यदि आठ समय पर्यन्त निरन्तर सिद्ध होते रहें, तो पहले समय में ज० एक, दो, तीन, उत्कृष्ट ३२, इसी क्रम से दूसरे. तीसरे, चौथे, पांचवें छठे, सातवें और आठवें समय में समझना। फिर नौवें समय में निश्चित अन्तर पड़े। यदि ३३ से लेकर ४८ निरन्तर सिद्ध हों, तो सात समय पर्यन्त, आठवें समय में अवश्य अन्तर पड़ जाता है। यदि ४६ से लेकर ६० पर्यन्त निरन्तर सिद्ध हों, तो ६ समय तक, सातवें में अन्तर पड़ जाता है । यदि ६१ से लेकर ७२ तक निरन्तर सिद्ध हों, तो उत्कृष्ट ५ समय पर्यन्त ही, तत्पश्चात् नियमेन विरह पड़ जाता है। यदि ७२ से लेकर ८४ पर्यन्त सिद्ध हों तो चार समय तक सिद्ध हो सकते हैं, पांचवें समय में अवश्य अन्तर पड़ जाता है । यदि ८५ से लेकर ६६ पर्यन्त सिद्ध हों तो तीन समय पर्यन्त ही । यदि ६७ से लेकर १०२ सिद्ध हों, तो निरन्तर दो समय तक, तदनुनियमेन अन्तरं पड़ जाता है। यदि पहले समय में ही एक सौ तीन से लेकर १०८ सिद्ध हों, तो दूसरे समय में अन्तर अनिवार्य पड़ता है।
१४. संख्याद्वार-एक समय में ज० एक, उत्कृष १०८ सिद्ध हों। १५. अल्पबहुत्व–पूर्वोक्त प्रकार से ही है ।
३. क्षेत्रद्वार मानुषोत्तर पर्वत जो कि कुण्डलाकार है, जिसके अन्तर्गत अढाई द्वीप और लवण तथा कालोदधि समुद्र हैं । उनमें कोई ऐसी जगह नहीं है, जहाँ से जीव ने सिद्ध गति को प्राप्त न किया हो । जब कोई जीव