________________
नन्दीसूत्रम् पदार्थ-मुहुमो य होई कालो-काल सूक्ष्म होता है, तत्तो-और काल से खितं-क्षेत्र सुहुमपरं-सूक्ष्मतर भवा-होता है, जिससे अंगुखासेठी मिते-अंगुल मात्र श्रेणी रूप में प्रसंखिग्जा-असंख्यात मोसप्पिणीमो-अवसपिणियों के समय परिमाण प्रदेश होते हैं ।
सेतं-इस प्रकार बदमाशयं-वर्तमानक मोहिनाणं-अवधिज्ञान का स्वरूप है। ___ भावार्य-काल सूक्ष्म होता है, उससे भी क्षेत्र सूक्ष्मतर होता है, जिससे, अङ्गुल मात्र क्षेत्र धेणिरूप में आकाश के प्रदेश समय की गणना से गिने जाएं तो असंख्यात अवसर्पिणियों के समय परिमाण प्रदेश होते हैं अर्थात् असंख्यात् काल-चक्र उनकी गिनती में लगते हैं। इस तरह यह वर्तमानक अवधिज्ञान का वर्णन है ॥ सूत्र १२ ॥
टीका-प्रस्तुत गाथा में किसकी अपेक्षा कौन सूक्ष्म है ? इसका उत्तर सूत्रकार ने स्वयं दिया है । उन्होंने कहा-काल सूक्ष्म है, किन्तु वह क्षेत्र, द्रव्य और भाव की अपेक्षा से स्थूल है, क्षेत्र काल की अपेक्षा से सूक्ष्म है, क्योंकि प्रमाणागुल बाहल्य विष्कम्भ श्रेणि में आकाश प्रदेश इतने हैं, यदि उन प्रदेशों का समयसमय में अपहरण किया जाए, तो निर्लेप होने में असंख्यात अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी बीत जाएं। क्षेत्र के एक-एक आकाश प्रदेश पर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध अवस्थित हैं। द्रव्य की अपेक्षा भाव सूक्ष्म है, क्योंकि उन स्कन्धों में बनम्त परमाणु है, प्रत्येक परमाणु में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श की अपेक्षा से अनन्त पर्यायें वर्तमान हैं। काल, क्षेत्र, द्रव्य और भाव ये क्रमशः सूक्ष्म, सूक्ष्मतर हैं और उत्क्रम से पूर्व-पूर्व स्थूल एवं स्थूलतर हैं । ये सब वस्तुतः सूक्ष्म ही हैं । इस पर वृत्तिकार के निम्न प्रकार से शब्द हैं।
"सर्वबहु-अग्निजीवा निरन्तरं यावत् क्षेत्रं सूचीभ्रमणेन सर्वदिक्कं भृतवन्तः, एतावति क्षेत्रे यान्यवस्थितानि ग्याणि तत्परिच्छेदसामर्थ्ययुक्तः परमावधिक्षेत्रमधिकृत्य निर्दिष्टो गणधरादिभिः, अयमिह . सम्प्रदायः--सर्ववहग्निजीवा प्रायोजितस्वामितीर्थकृत् काले प्राप्यन्ते, तदारम्भकमनुष्यबाहुल्यसंभवात्, समाबोकाटपदवर्तिनस्तत्रैव विवषयन्ते, ततब सर्वबहवोऽनलजीवा भवन्ति ।"
अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि यह क्षेत्र कितने बड़े परिमाण में है ? इसके उत्तर में निम्नलिखित दो गाथाएं हैं
"निययावगहणागणि-जीवसरीरावली समन्तेणं ।। भामिज्जा मोहिनाणी, देह पज्जंतनो सा य ।। भइगन्तूबमलोगे, लोगागासप्पमाण मेत्ताई।
ठाइ पसंखेज्जाई, इदमोहिक्खेत्तमुक्कोसं ॥२॥" इन गाथाओं का भाव ऊपर दिया जा चुका है। यह सब सामर्थ्यमात्र वर्णन किया गया है। यदि उक्त क्षेत्र में रूपी द्रव्य हों, तो अवधिज्ञानी उन्हें भी देख सकता है। अलोक में रूपी द्रव्यों का सर्वथा अभाव है, और अवधिज्ञानी रूपी द्रव्य को ही विषय करता है, अरूपी को नहीं। कहा भी है--
"सामत्यमेत्तमुत्तं दट्ठवं, जइ हवेज्जा पेच्छेज्जा । न उतं तत्थस्थि जमो, सो रूबी निबंधयो भणिभो ॥१॥