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नन्दीसूत्रम्
परिमाण देखे तो काल से साधिक मास और यदि क्षेत्र से मनुष्यलोक परिमित क्षेत्र देखे तो काल से एक वर्ष परिमाण भूत व भविष्यत् की वार्ता को जानता हुआ देखे और यदि क्षेत्र से रुचक क्षेत्र परिमाण देखे, तो काल से पृथक्त्व वर्ष-२ से लेकर वर्ष परिमाण भूत और भविष्य को जानता है। मूलम-६. संखिज्जम्मि उ काले, दीवसमुद्दा वि हुँति संखिज्जा।
कालम्मि असंखिज्जे, दीवसमुद्दा उ भइयव्वा ॥ ६० ॥ छाया-६. संख्येयं तु काले, द्वीपसमुद्रा अपि भवन्ति संख्येयाः ।
कालेऽसंख्येये, द्वीपसमुद्रास्तु भाज्याः ॥ ६० ॥ . पदार्थ-यदि काल से संखिज्जम्मि काले-संख्यात काल को जाने तो दीवसमुद्दा वि-द्वीपसमुद्र भी संखिज्जा—संख्यात ही हुँति-होते हैं। अपि शब्द महत् और एवकारार्थ में जानना, कालम्मि असंखिज्जे असंख्यात काल को जानने पर दीवसमुहा उ-द्वीपसमुद्र भइयवा-भजनीय-विकल्पनीय होते हैं।
भावार्थ-यदि अवधिज्ञान द्वारा काल से संख्यात काल में हुई बात को जाने तो क्षेत्र से भी संख्यात द्वीप-समुद्र पर्यन्त जाने और असंख्यात काल जानने पर क्षेत्र से द्वीप और समुद्रों की भजना जाननी चाहिए अर्थात् संख्यात व असंख्यात दोनों होते हैं । मूलम्-७. काले चउण्हं वुड्डी, कालो भइअव्वु खित्तवुड्डीए ।
वुड्डीए दव्व-पज्जव, भइयव्वा खित्तकाला उ ॥ ६१ ॥ छाया-७. काले चतुर्णा वृद्धिः, कालो भजनीयः वृद्धया (दौ)।
वृद्धया (द्धौ) द्रव्यपर्याययोः, भाज्यौ क्षेत्रकालौ तु ॥६१॥ पदार्थ - काले-काल की वृद्धि होने पर चउण्हं वुड्डी-चारों-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की वृद्धि होती है, खित्तवुड्डीए-क्षेत्र की वृद्धि होने पर कालो-काल की और भइअव्वु-भजना होती है, दवपज्जव-द्रव्य और पर्याय की वुड्डीए-वृद्धि होने पर खित्तकाला--क्षेत्र और काल की उ भइयव्वोभजना होती है।
भावार्थ-काल की वृद्धि होने पर चारों-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इनकी वृद्धि होती है, क्षेत्र की वृद्धि होने पर काल भजनीय होता है अर्थात् कदाचित् वृद्धि पाता है और कदाचित् नहीं । द्रव्य और पर्याय की वृद्धि होने पर क्षेत्र और काल भजनीय होते हैं अर्थात् वृद्धि पाते भी हैं और नहीं भी पाते हैं।
टीका-- अवधिज्ञान का जघन्य और उत्कृष्ट विषय प्रतिपादन करने के अनन्तर अव गाथाओं द्वारा सूत्रकार अवधिज्ञान का मध्यम विषय वर्णन करते हैं। यद्यपि गाथाओं का स्पष्ट अर्थ और भाव पदार्थ में तथा भावार्थ में दिया जा चुका है, तदपि यहां क्षेत्र और काल के विषय में पुनः विवेचन करना समुचित