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द्वितीय युग में इनका विभाजन प्रत्यक्ष और परोक्ष के रूप में किया गया। प्रथम दो ज्ञानमति और श्रुत, इन्द्रिय और मन की अपेक्षा रखने के कारण परोक्ष कहे गये। और अन्तिम तीन ज्ञान अर्थात् अवधि, मनःपर्यव और केवल आत्म, मात्र की अपेक्षा रखने के कारण प्रत्यक्ष ।
तृतीय युग में इन्द्रिय से होने वाले ज्ञान को भी प्रत्यक्ष मान लिया गया। यह विभाजन अकलंक के ग्रंथों में मिलता है, और न्यायदर्शन के प्रभाव को प्रकट करता है। नंदीसूत्र प्रथम दो युगों का प्रतिनिधित्व करता है ईसा की चतुर्थ शताब्दी तक ज्ञानसिद्वान्त के संबंध में जो विकास हुआ, वह इसमें मिलता है। . नंदीसूत्र में सम्यकश्रुत और मिथ्याश्रुत का विभाजन भी दोनों दृष्टियाँ लिये हुए है। सर्व प्रथम आचारांग
आदि जैन आगमों को सम्यकश्रुत कहा गया और रामायण, महाभारत आदि जैनेतर साहित्य को मिथ्याश्रुत, तत्पश्चात् यह बताया गया कि जैनेतर साहित्य भी सम्यग्दृष्टि द्वारा गृहीत होने पर सम्यकश्रुत कहा जायेगा और मिथ्यादृष्टि द्वारा गृहीत होने पर मिथ्याश्रुत, यह दृष्टि जैनपरंपरा की प्राचीन एवं मौलिक देन है। उसकी धारणा है, कि वस्तु अपने आप में सम्यक् और मिथ्या नहीं होती। एक ही वस्तु सज्जन के पास जाने पर . उपकारक बन जाती है, और दुर्जन के पास जाने पर अपकारक। सज्जन उसे अच्छे काम में लगाता है, और दुर्जन बुरे काम में। तत्त्वार्थसूत्र में ज्ञान और अज्ञान का विभाजन इसी आधार पर किया गया है।
आचार्यश्री आत्मारामजी म० द्वारा अनुवादित नंदीसूत्र का संपादन आधुनिक शैली पर किया गया है। प्रारंभ में विस्तृत भूमिका है। जो ज्ञान चर्चा पर अच्छा प्रकाश डालती है। आशा है, इसी प्रकार अन्य सूत्रों का संपादन भी किया जायेगा । अंत में मैं दिवंगत आचार्यश्री जी के प्रति अपनी हार्दिक श्रद्वा एवं भक्ति प्रकट करता हूँ।
शुभाकांक्षी
आचार्य आनंद ऋषि