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प्रामाणिक दृष्टि से सर्वपथम स्थान अंगों का है। उनकी रचना भगवद्वाणी के आधार पर उनके प्रमुख शिष्य गणधरों ने की। उनके पश्चात् आवश्यक आदि उन आगमों का स्थान है, जिनकी गणना १४ पूर्वधारी मुनियों ने की। जैन परंपरा में चतुर्दशपूर्वधरों को श्रुतकेवली कहा जाता है। उनके पश्चात् समग्र दश पूर्व का ज्ञान रखने वाले मुनियों की रचनाओं को भी आगम साहित्य में सम्मिलित कर लिया गया। जैनधर्म की मान्यता है कि जिस व्यक्ति को संपूर्ण दशपूर्वो का ज्ञान होता है, वह अवश्यमेव सम्यग्दृष्टि होता है। मिथ्यादृष्टि कुछ अधिक नवपूर्वो तक ही पहुँच सकता है। दृष्टिवाद का कुछ समय पश्चात् लोप हो गया। वर्तमान समय में आगमों का विभाजन नीचे लिखे अनुसार किया जाता है
१. ग्यारह अंग 1 ४ छेद
और आवश्यक। २. बारह उपांग ४ मूल
स्था० परंपरा उपर्युक्त ३२ आगमों को मानती है। मूर्तिपूजक परंपरा में इनकी संख्या ४५ मानी जाती है वे १० प्रकीर्णक और जोड़ देते हैं, साथ ही छेद सूत्रों की ६ और मूल सूत्रों की ५ संख्या मानते हैं।
नंदीसूत्र की गणना मूल सूत्रों में की जाती है। रचना की दृष्टि से इसका अंतिम स्थान है। ईसा की चौथी शताब्दी में इसकी रचना देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण ने की। आगम साहित्य की दृष्टि से देवर्द्धिगणी का स्थान कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। जैन परंपरा में यह माना जाता है, कि आगमों का संकलन एवं संपादन करने के लिए ३ वाचनायें हुई थीं। प्रथम वाचना पाटलिपुत्र में भद्रबाहु स्वामी की अध्यक्षता में हुई। जिसका समय भगवान महावीर के १७० वर्ष पश्चात् माना जाता है।
__ द्वितीय वाचना उनके २११ सौ वर्ष पश्चात् मथुरा में हुई और तृतीय एक हजार वर्ष पश्चात् वल्लभी में हुई। उस समय आगमों को जो रूप दिया गया वह अब तक प्रचलित है।
संस्कृत साहित्य में नंदी शब्द का अर्थ मंगल है। यह "टुनदि समृदौ" धातु से बना है उसका यह अर्थ है, वे सब बातें जो सुख समृद्वि देने वाली हैं। संस्कृत नाटकों में सर्व प्रथम नंदी हुआ करती थी, उसके पश्चात् सूत्रधार का प्रवेश होता था। इसीलिए प्रत्येक मंगलाचारण के अंत में लिखा रहता है, नान्द्यन्ते सूत्रधार जैन परंपरा में ५ ज्ञानों के विवेचन को नंदी का स्थान दिया है, वह इसकी विशेषता है। इसका अर्थ है, वह ज्ञान के आलोक को सबसे बड़ा मंगल मानती है। जैनपरंपरा प्रारंभ से ही गुण पूजक रही है। वहाँ व्यक्ति में गुणों का आरोप नहीं किया जाता, किन्तु गुणों के आधार पर व्यक्ति पूजा जाता है। ज्ञान का आलोक सबसे बड़ा गुण है, इसीलिए उसे मंगल मान लिया गया। व्यक्ति विशेष की वन्दना के स्थान पर उसी को ग्रंथ के प्रारंभ में रखने की परंपरा चल पड़ी। प्रतीत होता है आचार्य देवर्द्धिगणी के मन में आगमों का अध्ययन प्रारंभ करते समय मंगल के रूप में सर्व प्रथम इसके अध्ययन की कल्पना रही होगी। विशेषावश्यकभाष्य आगमिक ज्ञान का आकर ग्रंथ है। आगम सम्बन्धी ऐसा कोई विषय नहीं है, जिसकी चर्चा उसमें न आई हो। इसमें भी सर्व प्रथम मंगल के रूप में ५ ज्ञानों की विस्तृत चर्चा है। ज्ञान सिद्वान्त के विकास की दृष्टि से जैनपरंपरा को तीन युगों में विभक्त किया जा सकता है। प्राचीनतम परंपरा- इसका विभाजन ५ ज्ञानों के रूप में करती है। कर्म सिद्वान्त भी इसी का समर्थक है। जैनदर्शन के अनुसार ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक गुण है, उसे ज्ञानावरणीय कर्म ने दबा रक्खा है। वह ज्यों-ज्यों हटता है, ज्ञान अपने आप प्रकट होता जाता है इसी को मतिज्ञान और श्रुतज्ञान आदि के रूप में विभाजित किया जाता है।
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