SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ युगप्रधान-स्थविरावलि-वन्दन मूलम्-तत्तो हिमवंत-महंत-विक्कमे धिइ-परक्कम-मणते । सज्झायमणंतधरे, हिमवंते वंदिमो सिरसा ॥३८॥ छाया-ततो हिमवन्महाविक्रमान्, अनन्तधृति-पराक्रमान् । अनन्त-स्वाध्यायधरान्, हिमवतो वन्दे शिरसा ॥३८।। पदाया पदार्थ-तत्तो-स्कन्दिलाचार्य के पश्चात हिमवंत-हिमवान् की तरह महंत-महान विक्कमेविक्रमशाली, धिइ-परक्कम-मणंते-अनन्त धैर्य व पराक्रम वाले और सज्झाय-मणंतधरे-अनन्त स्वाध्याय के धर्ता, हिमवंते-हिमवान् आचार्य को सिरसा-नतमस्तक वंदिमो-वन्दना करता हूं। भावार्थ-श्रीस्कन्दिल आचार्य के पश्चात् हिमालय की भांति विस्तृत क्षेत्र में विचरण करने वाले, अथवा महान् विक्रमशाली, तथा असीम धैर्ययुक्त और पराक्रमी, भाव की अपेक्षा से अनन्त स्वाध्याय के धारक आचार्य श्री स्कन्दिल के सुशिष्य आचार्य हिमवान् को मस्तक • नमाकर वन्दन करता हूँ। - टीका-इस गाथा में महामनाः प्रतिभाशाली, धर्मनायक, प्रवचनप्रभावक (२६) हिमवान्नामक आचार्य को वन्दन किया है। और उनके साथ निम्नलिखित विशेषण भी दिये गए हैं, जैसे कि हिमवंत-महंत-विक्कमे-वे हिमवान पर्वत की भांति बहक्षेत्र व्यापी विहार करने वाले थे, जो कि अनेक देशों में विरचते हए उपदेश देकर अनेक भव्य जीवों को सन्मार्ग में लगाते हए जिनमार्ग को दिपाते थे। धिइपरक्कममणन्ते-इस पद का आशय है, कि जो अपरिमित धैर्य और पराक्रम से कर्मशत्रुओं का सफाया कर रहे थे । आचार्य व श्रमणों में अनन्त बल होना चाहिए, तभी वे अपना उद्देश्य पूरा कर सकते हैं । यहाँ अनन्त शब्द अपरिमित अर्थ का द्योतक है। . सज्झायमणंतधरे-तीसरे पद में स्वाध्याय अनन्त पर्यायात्मक होने से अनन्त स्वाध्याय कहा है क्योंकि सूत्र अनन्त अर्थ वाला होता है, पर्यालोचन करने से द्रव्यों का अनन्त पर्यायात्मक होना स्वयंमेव सिद्ध हो जाता है। ये आचार्य दोनों गुणों से युक्त थे। इस गाथा में से प्रत्येक जिज्ञासु को शिक्षा लेनी चाहिए कि अनन्तधृति और अनन्त स्वाध्याय करने से ही आत्मविकास तथा अभीष्ट कार्यों की सिद्धि हो सकती है। अनन्त शब्द, पर-निपात और "म" कार अलाक्षणिक है, जैसे कि वृत्तिकार लिखते हैं "प्राकृतशैल्याऽनन्तशब्दस्य परनिपातो मकारस्त्वलाक्षणिकः” आचार्य हिमवान को हिमवान पर्वत से उपमा देने का यह अभिप्राय है कि वे हिमालय की भांति अपनी मर्यादा, प्रतिज्ञा और संयम में अचल एवं दृढ़ थे।
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy