________________
___ युगप्रधान-स्थविरावलि-वन्दन मूलम्-अयलपुरा णिक्खंते, कालिय-सुय-प्राणुअोगिए धीरे ।
बंभद्दीवग-सीहे, वायग-पय-मुत्तमं पत्ते ॥३६॥ छाया-अचलपुरान्निष्क्रान्तान्, कालिकश्रुताऽनुयोगिकान् धीरान् ।
ब्रह्मद्वीपिकसिंहान्, वाचक-पद-मुत्तमं प्राप्तान् ॥३६॥ . पदार्थ - अयलपुरा–अचलपुर से जो निक्खते-दीक्षित हुए, कालिय-सुयप्राणुशोगिए-कालिकसूत्रों के व्याख्याता तथा धीरे-धीर, वायगपय-मुत्तमं-उत्तमवाचक पद को पत्ते-प्राप्त करनेवाले बंभद्दीवगसीहे-ब्रह्मद्वीपिक शाखा में सिंह के समान श्री सिंहाचार्य को वन्दन—करता हूं।
___ भावार्थ-जो अचलपुर में दीक्षित हुए और कालिक श्रुत की व्याख्या करने में निपुण तथा धीर थे, जो उत्तम वाचक पद को प्राप्त हुए, ऐसे ब्रह्मद्वीपक शाखा से उपलक्षित श्रीसिंहाचार्य को वन्दन करता हूँ। 'टीका-इस गाथा में रेवति नक्षत्र के शिष्य आचार्यसिंह का वर्णन किया गया है
(२४) आचार्य सिंह ने अचलपुर में दीक्षा ग्रहण की थी, वे कालिकश्रुत की व्याख्या व व्याख्यान में अन्य आचार्यों से बढ़कर थे तथा ब्रह्मद्वीपिक शाखा से उपलक्षित हो रहे थे। इन्हीं कारणों से उन्होंने उत्तमवाचक पद प्राप्त किया। आचार्य सिंह युगप्रधान आचार्यों में अद्वितीय थे। . इस गाथा से तीन विषय प्रकट होते हैं, जैसे कि कालिकश्रुतानुयोग, ब्रह्मद्वीपिकशाखा और उत्तमवाचक पद की प्राप्ति । कालिकश्रुतानुयोग से उनकी विद्वत्ता सिद्ध होती है । ब्रह्मद्वीपिकशाखा से यह जाना जाता है कि उस समय में कतिपय आचार्य शाखाओं के नाम से प्रसिद्ध हो रहे थे। वाचकपद के साथ उत्तम पद लगाने से सिद्ध होता है, उस समय में अनेक वाचक होने पर भी, उन सब वाचकों में ये प्रधान वाचक थे । अयलपुरा–अचलपुरात्-पद देने का यह अभिप्राय ज्ञात होता है कि संभव है, उस समय यह नगर अति सुप्रसिद्ध होगा। धीरे-इस पद से सिद्ध होता है कि ये आचार्य बुद्धिमान् और धैर्यवान् थे,
यथा धिया राजन्त इति धीरा-परम बुद्धिवान और धैर्यवान होने से सिंह आचार्य श्रीसंघ में सुशोभित हो । • रहे थे । अतः आचार्य सिंह वन्दनीय हैं । इस गाथा में णिक्खंते-आदि पद-द्वितीयान्त दिखाए गए हैं।
मूलम्-जेसिं इमो अणुप्रोगो, पयरइ अज्जावि अड्ढ-भरहम्मि ।
'बह-नयर-निग्गय-जसे, ते वंदे खंदिलायरिए ॥३७॥ छाया-येषामयमनुयोगः,
प्रचरत्यद्याप्यर्द्ध भरते । . बहुनगरनिर्गतयशः, तान् वन्दे स्कन्दिलाचार्यान् ॥३७।। पदार्थ-जेसिं—जिनका इमो-यह अणुप्रोगो-अनुयोग अज्जावि अड्ड-भरहम्मि-आज भी अर्द्धभरत क्षेत्र में पयरइ–प्रचलित है। वह-नयर-निग्गय-जसे-बहुत नगरों में जिनका यश प्रसृत है, उन खंदलायरिए-स्कन्दिलाचार्य को वंदे-वंदन करता हूं।