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नदीसूत्रम्
सेवा की । ४४ वर्ष कैवल्य पर्याय में रहकर निर्वाण-पद को प्राप्त किया अर्थात् श्रीजम्बूस्वामीजी भगवान् महावीर स्वामी के निर्वाण के पश्चात् चौंसठवें वर्ष में मोक्ष पधारे :
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श्री जम्बूस्वामीजी के पट्टधर शिष्य प्रभव स्वामीजी हुए, जो राजकुमार थे । जीवन की किसी विशेष घटना के कारण उन्हें चोरी का व्यसन लग गया। ओप एक दिन पांच सौ ( ५००) चोरों को साथ लेकर राजगृह नगर में जम्बुकुमारजी की सम्पत्ति को लूटने के लिए आए। उस समय जम्बूकुमारजी ने आपको प्रतिबोध दिया क्योंकि जो स्वयं वैराग्य-रंग से अनुरंजित होते हैं, वे ही दूसरों को अपने जैसा बना सकते हैं । तब प्रभव स्वामीजी अपने साथी ५०० चोरों सहित जम्बूकुमारजी के साथ ही दीक्षित हुए अर्थात् मुनिव्रत को धारण किया। आप तीस वर्ष तक गृहस्थावस्था में रहे । जो व्यक्ति गृहवास में चोरों के अधिनायक रहे हैं, सत्संग के प्रभाव से वे ही महापुरुष मुनियों के तथा श्रीसंघ के अधिनायक बने । श्रीमहावीर के निर्वाण के ७५ वर्ष पश्चात् स्वर्ग में पधारे ।
श्रीप्रभव स्वामी के पट्टधर शिष्य श्रीशय्यंभव स्वामी हुए हैं, जिन्होंने अपने सुपुत्र तथा सुशिष्य मनक अनगार के लिए श्रीदशवैकालिक सूत्र की रचना की । आप २८ वर्ष गृहवास में रहे । ग्यारह वर्ष सामान्य साधु-पर्याय में, तथा तेइस वर्ष युगप्रधान आचार्यपद में रहकर आपने श्रीसंघ की सेवा की। सर्वायु बासठ वर्ष की भोगकर वीर निर्वाण सं० ६८ वर्ष पश्चात् स्वर्गवासी हुए ।
उक्त गाथा में गोत्रों का उल्लेख आया है, जिनकी व्युत्पत्ति वृत्तिकार ने व्याकरण के अनुसार निम्नलिखित की है, जैसे कि - " अग्निवेशस्यापत्यं वृद्धं श्राग्निवेश्यो, 'गर्गादेर्यनिति' यञ् प्रत्ययः तस्याप्यपत्य माग्निवेश्यायनः कश्यपस्यापत्यं काश्यपः 'विदादेवृद्धः' इत्यञ् प्रत्ययः, कतस्यापत्यं काव्यः 'गर्गादेर्यनिति' यज् प्रत्ययः तस्यापत्यं कात्यायनः, वत्सस्यापत्यं वात्स्यो गर्गादेर्यजिति यज् प्रत्ययः । "
मूलम् – जसभद्दं तुंगियं वंदे, संभूयं चेव माढरं । भद्दबाहुं च पाइन्नं, थूलभद्दं च गोयमं ॥ २६ ॥ छाया - यशोभद्रं तुंगिकं वन्दे, संभूतं चैव माढरम् । भद्रबाहुं च प्राचीनं, स्थूलभद्रं च गौतमम् ॥ २६ ॥
पदार्थ – जसभद्द तुङ्गियं - तुंगिक - गोत्रीय यशोभद्रजी को संभूयं चेत्र माढरं — और माढरगोत्रीय संभूतविजयजी को, भहबाहुं च पाइन्नं - प्राचीन गोत्रीय भद्रबाहुजी को, थूलभद्दं च गोयमं- गौतमगोत्रीय स्थूलभद्रजी को, बंदे - मैं वन्दन करता हूं ।
भावार्थ - आचार्य यशोभद्रजी, संभूतविजयजी, भद्रबाहुजी और गौतम गोत्रीय स्थूलभद्रजी, इनको अभिवादन करता हूँ ।
टीका- उक्त गाथा में तुंगिकगोत्री यशोभद्रजी, माढर गोत्रवाले सम्भूतविजयजी, प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहुस्वामीजी, और गौतमगोत्रीय स्थूलभद्रजी इत्यादि आचार्यप्रवरों को वन्दना - नमस्कार किया है । ये सुशिष्य और आचार्य से सम्बन्ध रखते हैं।
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