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________________ णमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स नन्दीसूत्रम् अर्हत्स्तुति . मूलम्-जयइ जगजीवजोणी-वियाणो जगगुरू जगाणंदो। . जगणाहो जगबंधू, जयइ जगप्पियामहो भयवं ॥१॥ छाया-जयति जगज्जीवयोनि-विज्ञायको जगद्गुरुर्जगदानन्दः । ____ जगन्नाथो जगबन्धुर्जयति जगत्पितामहो भगवान् ॥१॥ पदार्थ-जग-जीव-जोणी-वियाणो-संसार के सभी प्राणियों के उत्पत्ति-स्थान को जानने वाले, जगगुरू-प्राणिजगत् के गुरु, जगाणंदो-संसार के प्राणियों को आनन्द देने वाले, जयइ-जोकि गुणों से सर्वोपरि हैं, जगणाहो-चराचर विश्व के स्वामी, जगबन्धू--विश्वमात्र के बन्धु, जगप्पियामहो-प्राणीमात्र के पितामह, भयवं-समन ऐश्वर्ययुक्त भगवान्, जयइ-सदा जययुक्त हैं अर्थात् जिन्हें कुछ भी जीतना शेष नहीं रहा। भावार्थ-धर्मास्तिकायादि रूप संसार को तथा जीवों के उत्पत्ति-स्थान को जानने वाले, जगद्गुरु, भव्यजीवों को आनन्ददायक, स्थावर-जंगम प्राणियों के नाथ, समस्त जगत् के बन्धु, लोक में धर्म की उत्पत्ति भगवान् करते हैं और धर्म संसारी आत्माओं का पिता है, इस प्रकार संसार के पितामह अर्हद् भगवान् सदा जयशील हैं, क्योंकि अब उन्हें कुछ भी जीतना शेष नहीं रहा। टीका-इस गाथा में स्तुतिकार ने सर्वप्रथम शासन-नायक अरिहंत भगवान् की तथा सामान्य केवली भगवान् की मंगलाचरण के रूप में स्तुति की है। स्तुति दो प्रकार से की जाती है, जैसे कि-प्रणामरूप और असाधारण गुणोत्कीर्तनरूप, इस गाथा में दोनों प्रकार की स्तुतियों का अन्तर्भाव हो जाता है। क्योंकि इस गाथा में जो 'जयइ' क्रिया है, वही सिद्ध करती है कि-इन्द्रिय, विषय, कषाय, घातिकर्म, परीषह, उपसर्गादि शत्रु-समुदाय का सर्वथा उन्मूलन करने से ही अरिहंत-पद प्राप्त होता है। अत: महामना मनीषियों के लिए जिनेन्द्र भगवान् ही प्रणाम के योग्य तथा असाधारण स्तुति के योग्य होते हैं।
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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