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________________ दृष्टि जीव को सम्यग्ज्ञान-आलोक से चारित्र की आराधना में सुगमता रहती है। दृष्टि सम्यक होने पर ज्ञानाराधना भी धर्म है, क्योंकि धर्मध्यान के सौध पर आगम अभ्यास के द्वारा पहुंचने में सुविधा रहती है। आगमों का श्रवण और अध्ययन का सम्बन्ध श्रुतधर्म से है। केवलि-आराधना भी दो प्रकार की होती है.-अन्तक्रिया केवलि-आराधना और कल्पविमानऔपपत्तिका । इन में पहली आराधना करने वाला जीव सिद्धत्व प्राप्त करता है और दूसरी आराधना करने वाला कल्प और कल्पातीत वैमानिक देव बनता है। क्या केवली भी देवलोक में उत्पन्न हो सकता है ? इस प्रश्न के उत्तर में यह कहा जा सकता है, जो मुनिवर चतुर्दशपूर्वधर, अवधिज्ञानी तथा मनःपर्यवज्ञानी हैं, उन्हें भी केवली कहते हैं। इस दृष्पि से श्रुतकेवली भी देवलोक में उत्पन्न हो सकता है। सम्यक्त्व सहित आगम ज्ञान पराविद्या है। अन्यथा अपराविद्या है। क्योंकि विद्या दो प्रकार की होती है, एक अपरा और दूसरी परा । लौकिकी और लोकोत्तरिठी, व्यावहारिकी और नैश्चयिकी, मिथ्याश्रत और सम्यकश्रुत, इन नामान्तरों से भी उक्त दोनों विद्याओं का बोध हो जाता है। अपरा विद्या का सीधा संबन्ध बहिर्जगत् से है, उस का फल है, भौतिक तत्त्वों का विकास, आजीविका, पारितोषिक, सत्ता-ऐश्वर्य, यशः और प्रतिष्ठा का लाभ । इस विद्या के सन्निकट साथी हैंपदलोलुपता, तृष्णा, हिंसा, शोषणता, विद्रोह, मिथ्यात्व, कृतघ्नता, राग-द्वेष, विषय-कषाय । इस विद्या का पारंपरिक फल है-दुर्गतियों में परिभ्रमण एवं अनन्त संसार की वृद्धि आदि इसके दुष्परिणाम हैं। इसी को पारम्परिक फल भी कहते हैं । पराविद्या के लक्षण जिस विद्या से आत्मा सदा के लिए ज्ञान से आलोकित हो जाए, अज्ञान एवं मिथ्यात्व की सर्वथा निवृत्ति होजाए अथवा जिस से आत्मा अपूर्ण से पूर्णता की ओर बढ़े, वही पराविद्या है । वह सुनने से, अध्ययन करने से, अनुभव एवं अनुप्रेक्षा से प्रतिक्षण वृद्धि को प्राप्त होती है। . अहिंसा, सत्य, क्षमा, तप, मादेव, आर्जव, शौच, संयम त्याग, संतोष, लाघव, ब्रह्मचर्यवास, प्रशम, संवेग, विरक्ति, करुणा, आस्था, शान्ति, मध्यस्थता, साधुता, सभ्यता, विनयता, वीतरागता एवं निष्परिग्रहता आदि अनन्तगूण पराविद्या के सहचारी हैं। देशविरति और सर्वविरति का होना उस का साक्षात सुपरिणाम है। उसी भव में सिद्धत्व प्राप्त करना, कर्म शेष रहने पर कल्प देवलोक में महद्धिक, महाप्रभात, दीर्घस्थितिक देवत्व प्राप्त करना तथा कल्पातीत एवं अनुत्तर विमान में देवत्व प्राप्त करना, यह सब पराविद्या के परंपर फल हैं। नन्दीसूत्र समस्त श्रुत साहित्य का एक बिन्दु है, वह पराविद्या का असाधारण कारण है। आत्मज्ञान हो जाना ही पराविद्या का अंतिम फल है, क्योंकि आत्मस्वरूप की पहचान इसी विद्या से होती है। इन्सान को आत्मलक्ष्यी बनाने वाली यही विद्या है। इसी विद्या से कर्मों एवं दुःखों का तथा अज्ञान का २ देखो स्थानाङ्ग सूत्र, स्था०३, उ०४ ।
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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