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________________ रुप से चलती रही है, इसीलिये यह सुरक्षित रह पाया है । हजारों लाखों ही नहीं - बल्कि अनंत वर्षों से इकधारा अविरत रुप से और सतत नवकार महामंत्र आराधित रहने के कारण ही इसका अस्तित्व बच पाया है । इतना ही नहीं, परन्तु चारों ही गतिओं में, त्रिलोक में, १५ कर्मभूमिक्षेत्र में इसकी आराधना सर्वत्र होती रही है । भरत-ऐरवत क्षेत्र में अवश्य ही छठा-छठा आरा ये दोनों साथ साथ आ जाते हैं, इतना लम्बा काल बीच में धर्म के बिना निकल जाता है, परन्तु फिर भी महाविदेह क्षेत्र में नवकार की आराधना सतत चलती रहती है । अतः इस दृष्टि से यह शाश्वत मंत्र है । आत्मा अनादि शाश्वत है और आत्मा के आधार पर ही नवकार महामंत्र भी अनादि अनंत और शाश्वत है, तब तो फिर शाश्वतता की द्दष्टि से नवकार अपनी ही जाती का होता है, अतः हमें भी आराधना करनी चाहिये । दोनों ही एक जाति के हैं - समान धर्मी हैं अतः हमें ही अन्योन्याश्रयी होना चाहिये । थोड़ा सा विचार करिये - 'नवकार हमारे आधार पर हैं या हम नवकार के आधार पर हैं ? कौन किसके आधार पर टिक सका है ? यदि एक पक्षीय विचार करेंगे तो हमें अभिमान का दोष लगेगा, कि हमारे आधार पर नवकार महामंत्र टिक रहा है ? नहीं... नहीं, वास्तव में तो हम ही नवकार के आधार पर टिके हुए हैं । आज दुर्गति में न गिरकर सद्गति में उच्च मनुष्य गति में हम टिके हुए हैं - इसका अर्थ तो यही होता है कि भूतकाल में कहाँ कब और कितनी बार नवकार का रटन स्मरण हमने किया होगा ? किस भाव की साधना आज हमें तिराने के लिये समर्थ बनी है ? कब की हुई कौन सी धर्माराधना आज उदय में आई है ? इसका हमें कहाँ पता है । नवकार हमारे आधार पर नहीं टिका है, हमारे घर के आधार पर नहीं टिका है, क्यों कि नवकार गिनने वाले तो लाखों करोड़ो नहीं, परन्तु संख्या में असंख्य हैं, भूतकाल में भी नवकार गिनने वाले बहुत थे और आज भी हैं तथा भविष्य में भी रहने वाले ही हैं, अतः नवकार तो सतत टिकने ही वाला है । नवकार को टिकाए रखने का अभिमान हमें करने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है, हम १-२ या ५-२५ नवकार न भी गिने तो कहाँ फर्क पड़ने वाला है - कहाँ नवकार डुबने वाला है ? अथवा यह धर्म डूबने या नष्ट होने वाला है? यह नवकार ऐसा कहाँ हम पर जीवित है - या टिका हुआ है ? अतः ऐसा विचार करने की आवश्यकता भी नहीं है ।' 74
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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