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पुण्य की बात है ? कदाचित् कल्पना करो कि यदि हमारा जन्म जनपथ पर झुपड़पट्टी अथवा नीच कुल-गोत्र में हुआ होता, तो जन्म से हमें क्या मिलता ?
और आज भी हम क्या करते होते? अतः यह सब इतना सुंदर जो कुछ भी हमें प्राप्त हुआ है उसके पीछे हमारे स्वयं के उच्च गोत्र कर्म की पुण्य प्रकृति का हाथ है । यह भी विचार करो कि ऐसी उच्च गोत्र कर्म की पुण्य प्रकृति बाँधने के पीछे भी शुभ प्रवृत्ति करना आवश्यक है, अन्यथा यदि अशुभ पाप-प्रवृत्ति ही की, तो अशुभ पाप प्रकृति का ही बंध होगा ।
कर्म में तो शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार की प्रकृत्तियाँ हैं तथा संसार में उनके अनुरुप दोनों ही प्रकार की शुभ-अशुभ पुण्य-पाप की प्रवृत्तियाँ भी है । जैसी प्रवृत्ति करेंगे - वैसी ही प्रकृति का बंध होगा । अतः दोनों का बंध अपने हाथ में है । जैसा निर्णय करें, वैसा कर सकते हैं । जैसा प्रकृति बंध हम करना चाहें वैसा हम स्वयं कर सकते हैं - यह कर्म का सिद्धान्त है । अच्छे - बुरे कुल, जाति अथवा गोत्र में जन्म देना किसी अन्य ऊपरवाले के हाथ में नहीं, बल्कि अपने ही हाथ में है । हमें कहाँ जन्म लेना है ? इसके लिये कर्म सिद्धान्त सचोट और सच्चा है। कर्म पर श्रद्धा रखकर शुभ प्रवृत्ति करें तो निश्चित् रुप से लाभ होगा।
इस प्रकार विचार करते हैं तो जो सात-सित्तर पीढ़ियों से कुल - जाति वंश गोत्र और खानदानी में वंशानुक्रम से जो धर्म हमें वसीयत में प्राप्त हुआ है वह कब प्राप्त हुआ ? कैसे प्राप्त हुआ ? हमारे पूर्वजों ने किस प्रकार उत्तम कोटि की धर्माराधना की होगी सतत धर्म करके इसे किस प्रकार टिकाये रखा होगा ? कि आज हमें वह प्राप्त हुआ है. । धर्म केसे टिकता है ? धर्म तो धर्म करने से ही टिकता है । हमारे कुल में धर्म टिका है, इसका अर्थ यही है कि हमारे पूर्वज सतत यह धर्म करते आए हैं - करते रहे हैं, तभी यह टिक पाया है । हमने ऐसे कुल में जन्म लिया है जिसकी सित्तर पीढ़ियाँ उज्जवल हैं और यदि अब हम धर्म नहीं करते हैं तो कैसे चलेगा ?
विशाल समुद्र में नौका चलती हो और उस में यात्रा करने वाले यात्रीगण बैठे हो तथा बारी बारी से पतवार न चलाते हों तो क्या वह नाव चल पाएगी ? जब पतवार चलाकर नौका को मध्य तक ले गए और फिर यदि पतवार चलाना बन्द कर दिया तो क्या स्थिति होगी ? तब तो आशंका है कि समुद्र के मध्य ही डूबने की नौबत आ जाएगी, इसी प्रकार हमारे पिता-पितामह आदि जो धर्म करते