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________________ भूतकाल के भवों में हमने कभी न कभी ऐसी ही सुंदर आराधना - उपासना अवश्य की है और इसी का यह परिणाम है कि हमारे अतीत की साधना इस वर्तमान में पुष्पित एवं फलद्रुप हुई है । भूतकाल में साधना करते समय हमने कभी ऐसी भावना भी प्रदर्शित की होगी कि....“भवो भव तुम चरणों नी सेवा, हूँ तो मांगू छु देवाधिदेवा...” अर्थात् हे देवाधिदेव प्रभु ! भवोभव जन्म जन्मांतर में मुझे आपके चरणकमलों की सेवा भक्ति प्राप्त होती रहे ऐसी माँग आपसे करता हूँ, भक्तिभावपूर्वक आपसे प्रार्थना करता हूँ... आज जो कुछ भी हमें जन्म से प्राप्त हुआ है, उसकी पृष्ठभूमि में अपनी इस प्रबल प्रार्थना और माँग का भी आधार रहा है। किसी अन्य को नहीं, बल्कि हम अपने स्वयं को ही धन्यवाद अर्पण करें । हम अपने जीवन में ही धन्यवाद देते हुए अनुमोदन के भाव पूर्वक आत्म संतोष और शांति का अनुभव करते हुए कहते हैं कि हे जीव ! अच्छा हुआ कि विगत भवों में ऐसी सुंदर धर्माराधना की और नवकार महामंत्र के जापादि किये कि जिनके प्रभाव से, जिनके योग से इस भव में भी यह सब कुछ मैं प्राप्त कर सका, अन्यथा यह सब कैसे प्राप्त होता है ? और धर्म के अभाव में मेरा क्या होता ? अतः जो प्राप्त किया है, उसकी धन्यता का अनुभव करें आत्मानंदपूर्वक गौरवान्वित हैं । प्रसन्न इस लिये हों कि इस भव में मैं यह सब कुछ प्राप्त करने में सफल हुआ धर्म करना हमारा कर्तव्य है : यह तो बात हुई हमारी स्वंय की, परन्तु अन्य प्रकार से विचार करेंगे तो हमारी समझ में आएगा कि हमने जिन धर्मात्मा माता-पिता के घरमें जन्म लिया है, उसकी पृष्ठभूमि में भी हमारा संचित पुण्यबल कार्य कर रहा है, अन्यथा ऐसा घर मिले ही नहीं । सात-पीढी से जिस घर में धर्म होता आया है - सतत हो रहा है, हमारे पूर्वजों -पिता, पितामह-प्रपितामहआदि सभी ने जो सतत धर्म किया है, जिस धर्म के संस्कार वंशानुक्रम से उतरे है, वर्षों से जिस प्रकार देव गुरु धर्म की आराधना उपासना समस्त परिवार में होती चली आ रही है, जिस में परिवार के कितने ही लोगों ने धर्मोपासना की होगी, कई बार की होगी तभी ऐसा सुंदर वातावरण निर्मित हो पाया है । ऐसा कुल ऐसी जाति - ऐसा वंशानुक्रम और वातावरण यह सब सुंदर सुयोग्य और अच्छा तथा सच्चा प्राप्त होना क्या कम 71
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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