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हाथों से भंडार में पैसे डलवाए हैं, अपने हाथों से निर्धनों दीन-दुखियों को अनुकम्पा दान दिलवाया है, अपने इन हाथों से महापुरूषों-मुनि महात्माओं के पात्रों में सुपात्र दान प्रदान करवाया है । हम तो बड़े ही सौभाग्यशाली हैं कि यह सब हमें जन्म से ही प्राप्त हुआ है ।
भगवान महावीर का जीव प्रथम भव में नयसार के रूप में था - उनके साथ यदि हम थोड़ी सी तुलना करें तो हमें आश्चर्य होगा कि उस नयसार के पास तो कुछ भी न था, जब कि हमारे पास तो सब कुछ है । ऊपर जितनी चर्चा की है, उसमें से नयसार को कितना प्राप्त था ? क्या नयसार जन्म से जैन था ? क्या उसे जन्म से नवकार महामंत्रादि कुछ मिला था ? क्या उसे पता था कि साधु महात्मा किसे कहते हैं ? कैसे होते हैं ? सुपात्र दान कैसे दिया जाता है ? अरिहंत भगवंत कौन ? जैन धर्म अर्थात क्या ? आदि । यह तो हमारा सौभाग्य है कि अपने पूर्व जन्मों में यह सब कुछ मिला होगा और पूर्व जन्मों में हमने थोड़ी बहुत भी साधना की होगी जिसके फलस्वरुप इस भव में अनेक जन्मों के संचित पुण्य बल के योग से यह सब हमें जन्म से ही प्राप्त हुआ है । हमें तो इसकी प्राप्ति का गौरव होना चाहिये - संतोष और आनंद की हमें अनुभूति होनी चाहिये।
पूर्वाराधना का प्रभाव :
इस भव में यह सब कुछ प्राप्त हुआ है - यही इस बात का प्रमाण है कि हमने अपने पूर्व भवों में आराधना की है । इस भव में धर्म के प्रति रुचि सहज स्वाभाविक रुप से जागृत होना ही प्रमाणित करता है कि हमने विगत भवों में सम्यग् साधना, सम्यग् आराधना की है, जिसके परिणाम स्वरुप ही इस जन्म में यह सब कुछ हमें पुनः प्राप्त हुआ है - सहज में ही सद्भाव पैदा होते हैं, श्रद्धा उत्पन्न होती है, और श्रद्धा के भाव से हम धर्म के प्रतिआकर्षित हो रहे हैं । सुदेव सुगुरु और सद्धर्म के दर्शन होते ही सहज ही हम नतमस्तक हो जाते है । हमारे में अहोभाव पैदा हो जाता है । भले ही कदाचित् हो या न हो, कदाचित हमारी शारीरिक दुर्बलता हो, अथवा प्रतिकूल परिस्थितिवश भी अशक्य हो, परन्तु हृदय में तो भाव विद्यमान हैं, मन होता हैं - इच्छा होती है । इतना ही नहीं, अन्य को धर्माराधना करते हुए देखकर भी हमारा मन मयूर नृत्य करने लग जाता है, अहोभाव तथा अनुमोदन करने का भाव जागृत हो जाता है, तो भी समझ लें कि
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