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अतः उनकी क्रिया, उनका आचरण भी आत्मक्रिया स्वरुप है । क्रिया की प्रधानता चारित्र गुण में हैं जब कि ज्ञान की प्रधानता ज्ञान गुण में है, अतः नमस्कार करना चाहिये । यह नमस्करणीय है, वंदनीय -नमनीय है, नमस्कार करने योग्य है, - यह निर्णय ज्ञान गुण ने किया, अतः क्रियाप्राधान्यता रुप में नमस्कार चारित्र गुण से किया । नमस्कार की क्रियाशीलता चारित्र गुण पर आधारित है ।
इसी प्रकार तप गुण भी आत्मा का है । आत्मा के ये गुण नौ तत्त्वों में स्पष्ट रूप से बताए गए हैं।
नाणं च दसणं चेव चरितं च तवो तहा ।
वीरियं उवओगो य एअं जीवस्स लक्खणं ॥ नव तत्त्व ५. ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग ये छह गुण आत्मा के गुण हैं - ऐसा नव तत्त्वकार का फरमान है । तप गुण के ६ बाह्य और ६ अभ्यंतर कक्षा के गुण बताए गए हैं, जिन में अभ्यंतर के ६ भेदों में विनय दूसरे क्रम पर बताया गया है । विनय को यदि गुण के रूप में गिनते हैं तो उसका क्रियात्मक व्यवहार नमस्कार है । नमस्कार की क्रिया विनयगुण द्योतक है । पाँचवे क्रम पर वीर्य गुण आत्मशक्ति के अर्थ में बताया गया है। आत्मा अनंत वीर्यवान् है । नमस्कार जब क्रियाशील बनता है, तब उसमें भी आत्मा की वीर्य शक्ति का उपयोग होता है । श्री कृष्ण १८००० साधुओं को वंदन कैसे कर सके ? कितनी शक्ति होगी ? नमस्कार भी शक्ति पर आधारित है । इस प्रकार पाँचो ही आत्मिकगुणों से बना हुआ नमस्कार गुण है । नमस्कार में आत्मा के पाँचों ही गुणों का समावेश होता है । अतः नमस्कार आत्म-भाव है आत्म गुण है । नमस्कार जीवाश्रयी - जीव - विपाकी गुण है । अजीव - जड़ में न तो ये गुण हैं न इनके भाव होते हैं । भले ही एक यंत्र-मानव Robot हाथ जोड़कर आगंतुकों का स्वागत करता हो; आओपधारो Welcome भी कहता हो ... परन्तु वह जड़ है - निर्जीव है । अतः इसमें नमस्कार की भावात्मकता नहीं होती, मात्र जड़ क्रियात्मकता रह सकती है और वह भी जीव के द्वारा INPUT की गई है । अतः रह सकती है, परन्तु जड़ को नमस्कार की क्रिया के आधार पर निर्जरा का फल नहीं मिलता है । निर्जरात्मक नमस्कार तो ज्ञान-दर्शनात्मक होगा तभी संभव है और ऐसा नमस्कार जीवाश्रयी गुण है । नमस्कार ज्ञानादि योग से गुण स्वरूप है और चारित्र-वीर्यादि के योग से क्रियात्मक है।
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