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एक नमस्कार में ये ज्ञानादि पाँचो ही गुण अपना अपना दर्शन देते हैं। अपना रूप-स्वरूप दिखाकर नमस्कार करवाते हैं । किसे नमस्कार किया जाए ? नमस्करणीयं कौन हैं ? कैसे हैं ? इन्हें या ऐसों को नमस्कार किया जाए या नहीं
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यह निर्णय ज्ञान गुण लेता है । एक बार यदि ज्ञानगुण हरी झंडी दिखा दे कि हाँ – ये नमस्करणीय है, वंदनीय हैं, पूजनीय हैं, तत्पश्चात् दर्शनादिगुण सक्रिय बनते हैं । वे भी अपनी अपनी क्रियाएँ शुरु कर देते हैं। दर्शन गुण आँखों के समक्ष देखकर इन्हे नमस्कार करना चाहिये, इन्हे करें यहाँ सम्मुख रह कर करें - आदि इन्द्रियों का व्यवहार उपयोगादि शुरु करता है । चारित्र गुण नमस्कार में क्रियाशीलता लाता है, नमस्कार को क्रियाशील बनाता है, श्रद्धा सम्पन्न बनाता है और श्रद्धायुक्त नमस्कार ही लाभदायक होता है । निर्जरा करवाने का सामर्थ्य इसी में है ।
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अनंत चारित्र पर आच्छादित आवरण मोहनीय कर्म का है । मोहनीय कर्म के दो मुख्य भाग हैं - ( १ ) दर्शन मोहनीय और ( २ ) चारित्र मोहनीय । दर्शन मोहनीय सम्यग्दर्शन- श्रद्धा को दबोच कर बैठा है, अतः दर्शन मोहनीय कर्म दर्शन को श्रद्धा सम्पन्न नहीं होने देता। दूसरी ओर चारित्र मोहनीय कर्म आचरण के ऊपर छाया हुआ आवरण है जो क्रियाशीलता को अवरुद्ध करता है । इसके कारण चारित्रय मोहनीय कर्म की प्रबलता के कारण नमस्कार करने का मन ही नहीं होता । अतः जैसे जैसे कर्म घटते जाएँगे - इनका क्षयोपशम बढता जाएगा, वैसे वैसे नमस्कार की क्रिया सक्रिय बनेगी - नमस्कार की प्रवृत्ति में विकास होगा। अतः सर्व प्रथम इन दोनों ही कर्मों को शिथिल करने की आवश्यकता है, तभी नमस्कार में क्रियाशीलता और श्रद्धा सम्पन्नता दोनों ही आ सकती हैं । इसीलिये नमस्कार में क्रियाशीलता और श्रद्धासम्पन्नता दोनों ही आ सकती हैं । इसीलिये नमस्कार में चारित्र गुण की प्रधानता है । इसी प्रकार तपगुण युक्त भे नमस्कार है, नमस्कार यदि क्रियाशील हो तो 'तप' गुण उस में भाव भरता है और उसे भावपूर्ण बनाता है ।
विनय भाव प्रधान गुण है । विनय की गणना अभ्यंतर तप में होती है। भावनामय भाव-विनय गुण नमस्कार में आने से नमस्कार मात्र क्रियाशील ही नहीं रहता, परन्तु गुणप्रधान बन जाता है । फिर नमस्कार जीव की वृत्ति गुण प्रधान होती है । नमो भावयुक्त नमस्कार होगा, अन्यथा नमो भाव रहित औपचारिक
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