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'नमो भाव की आवश्यकता
नमस्करणीय ... वंदनीय ... पूजनीय... स्मरणीय... आदरणीय.... पंचरपरमेष्ठि भगवंतो के चरण कमल में अनंत बार नमस्कार करते हुए....
ताणं अनं तु नो अत्थि, जीवाणं भवसायरे ।
वुटुंताणं इमं मुत्तुं, नमुक्कारं सुपोययं ॥ भवसागर में डूबते हुए जीवों को इस संसार में बचानेवाला - रक्षक अथवा प्राणदाता नवकार महमंत्र के सिवाय कोई भी मंत्र नहीं है | नवकार महामंत्र रूपी नौका ही रक्षणदातृ है।
आत्मा अनादि - अनंत - शाश्वत है और नवकार महामंत्र भी अनादि - अनंत शाश्वत है । दोनों ही नित्य भाव से शाश्वत हैं । नित्य पदार्थ तत्त्व की गणना में आते हैं । क्षणिक या नश्वर की अपेक्षा नित्य - अविनाशी भावों की विशेषता जगत में अधिक होती है । नमस्कार धर्म है उसका धर्मी आत्मा है। धर्म - धर्मी, गुण-गुणी अन्योन्याश्रित हैं, गुणी नित्य हो तो उसके गुण भी नित्य ही होते हैं । आत्मा अनादि अनंत, अजर-अमर नित्य शाश्वत-अविनाशी द्रव्य - गुणी या धर्मी है तो उसका धर्म-गुण नमस्कार भी नित्य शाश्वत अविनाशी ही रहेगा । ऐसा तो नहीं कह सकते हैं कि .. लाखों वर्ष पूर्व सूर्य तो था, सूर्य उदित भी होता था, परन्तु प्रकाश नहीं था, नही होता था । सूर्य का प्रकाश था ही नहीं, और बाद में धीरे धीरे कालांतर में सूर्य में प्रकाश की वृद्धि होती गई या उस में प्रकाश का प्रवेश बाद में हुआ - ऐसा तो हम कह भी नहीं सकते । श्वेत वस्त्र जब से मिल में बना है, तभी से उस वस्त्र के साथ ही उसकी श्वेतता बनी है, क्यों कि मूलभूत द्रव्य के साथ ही उसका गुण रहता है । इसी प्रकार नमस्कार क्या है ? नमस्कार गुण है, धर्म हैं । किसका धर्म ? किसका गुण ? तो कहते हैं कि यह आत्मा का धर्म हैं, आत्मा का गुण है । निर्जीव या जड़ पदार्थ कभी नमस्कार नहीं करते । अजीव - जड़ पदार्थ में नमन करने का गुण है ही नहीं । वह स्वयं नमन करने का सामर्थ्य नहीं रखता, जब कि जीव स्वयं नमन कर सकता है । वह स्वतः स्वयं नमस्कार कर सकता है | नमस्कार एक भावात्मक स्वरुप है, भावात्मक गुण है, भावात्मक धर्म है । नमस्कार में भावना की प्रधानता नहित है । यह भावुकता प्रधान गुण है, नमन करने की, नमस्कार करने की स्वयं जीव की भावना होती है,
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