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विलम्ब किस बात का ? अब यदि प्रमाद किया तो इस भव के साथ साथ आनेवाला भव भी हाथ से निकल जाएगा - आलस्य और विलंब में सम्पूर्ण खेल बिगड जाएगा। देवता पर्वतमाला की श्रृंखला में गया । अपनी वैक्रिय शक्ति से चारों ओर चित्र मुनिवर की सूचनानुसार सब कुछ लिखता गया । नवकार आलेखित हो गई, चित्रित हो गए और स्वर्ग में जाकर देवभव के शेष आयुष्य काल में वह नवकार महामंत्र की सतत उपासना करने लगा। अब तो अधिक निष्ठा से करने लगा, क्योंकि आगामी भव को सुधारने की कला इस भव के हाथ में है। यह है नवकार की साधना । यह भव तो हाथ में है ही - अब तो यह भव अनेक भव सुधार सकेगा, परन्तु कौन ? वही जिसके हाथ में नवकार जैसा महामंत्र हो, वही अपना आगामी भव भी सुधार सकता है। दत्तचित्त होकर देवता नवकार का रटन करता है। भावपूर्वक स्मरण सतत चला । वानर भव में भी मुझे यह नवकार महामंत्र याद आए और वहाँ जातिस्मरणज्ञान प्राप्त हो तथा तिर्यंच गति में भी मैं नवकार प्राप्त कर सकूँ-गिन सकूँ - आदि की तैयारी हेतु उपयोग तथा एकाग्रतापूर्वक यहाँ इस भव में जापादि करने
लगा ।
अंत में उस देव ने अपना जीवन ही नवकारमय बना दिया । तन्मयता, तादात्म्यता और तदाकारता लाकर और मृत्यु प्राप्तकर वह देव तिर्यंच गति में गया। वहाँ वानर के रूप में वह उत्पन्न हुआ । बाल्यकाल बीता । वानर की तरह उछल कूद करना, वृक्षों से फल-फूल, आदि खाना उसका जीवन निर्वाह का क्रम था । तिर्यंच गति है - पशु का जन्म है, अतः आहार संज्ञा का प्रबल होना स्वाभाविक है, परन्तु पूर्व भव में जो सब तैयारी करके आया हो उसका क्या ? वह थोडा बडा हुआ। इधर
उधर उछल कूद करते करते एक दिन एक शिला के पास वह बैठा हुआ था। शिला पर आलेखित नवकार महामंत्र तथा चित्र देखने लगा और देखते देखते वह स्तब्ध हो गया । उछल कूद करता करता जहाँ भी वह जाए और जहाँ भी उसकी दृष्टि पडे उसे यह आलेखन - चित्रण दिखाई दे । वह आश्चर्यचकित हो गया । विचार श्रेणी पर अग्रसर होने लगा - यह सब क्या है ? यह किसका चित्र होगा ? यह क्या लिखा हुआ है ? इस तरफ यह पुरूष कौन खडा है? विचारों के प्रवाह में आगे बढ़ता ही गया। क्या प्रश्न रूपी चाबी ने अंदर का ज्ञान द्वार खोला ? मनन - चिन्तन बढ़ता ही गया और धीरे धीरे स्मृति पटल पर पडे हुए आवरण दूर हटते गए। वानर को जाति स्मरण ज्ञान हुआ, उसके पूर्व जन्म की स्मृति ताजी हो गई। पूर्व जन्म
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