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कर्मोपार्जन करके देवगति में से आए हैं एवं स्वर्गमन करते हैं ।
इस प्रकार कल्पसूत्र की टीका, तत्त्वार्थाधिगमसूत्र और कर्मग्रंथ के आधार पर लक्षणयुक्त तथा प्रवृत्ति स्वभावादि के अनुसार बद्ध होते कर्मों के अनुरूप जो गति तथा आयुष्य निर्मित निश्चित होते है उसकी स्पष्ट बात इस प्रकार है । जीव की स्वयं की गति - आगति उसी के स्वयं के हस्तगत है। वह जैसे भी कर्म करेगा वैसी ही गति उसे प्राप्त होगी, परन्तु यह सिद्धान्त ज्ञान से विपरित मानना मिथ्यात्व है अज्ञानता है। जैसे कि ऊपरवाला हमें एक से दूसरी गति में ले जाता है, हमारे आयुष्य की रस्सी ईश्वर के हाथ में है, उसकी इच्छानुसार हमें वह जहाँ - जिस गति में भेजता है, वहीं हमें जाना पडता है, वह जितना और जैसा आयुष्य हमें देता है।
उतने काल तक हमें जीना पडता है, रहना पडता है - यह सब मिथ्याज्ञान है। यह कर्म सिद्धान्त से विपरीत विचारधारा है।
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स्वर्गवास सांसारिक व्यवहार मात्र
लोकव्यवहार में प्रतिदिन सैंकडों मरते हैं और लाखों जन्म लेते हैं संसार चक्र इसी का नाम है, जहाँ गतिशील चक्र के आधार पर जीव एक गति से दूसरी गति में सतत आवागमन करते रहते हैं। घर में पिता की मृत्यु होने पर पुत्र समाचार पत्र में शोक संदेश छपवाता है कि - मेरे पिताश्री का स्वर्गवास हुआ है। उपर्युक्त सिद्धान्त के अनुसार हम देख चुके हैं कि जीव मात्र स्वर्ग में ही नहीं जाते, परन्तु चारों ही गतियों में जाते हैं । वे नरक में भी जाते हैं, तो फिर नरकवास भी लिखा जा सकता है। तिर्यंचवास भी लिखा जा सकता है और मनुष्यवास भी लिखा जा सकता है, परन्तु आज दिन तक इस प्रकार नरकवासादि शब्द लिखते हुए किसी को नहीं देखा। सभी स्वर्गवास ही लिखते हैं तो ऐसी क्या बात है ? इस शब्द से क्या यही समझा जाए कि जितने भी मरते हैं वे सभी स्वर्गगमन ही करते हैं ? सभी का निवास क्या एक मात्र स्वर्ग में ही होता है ? संसार में किसी की भी मृत्यु पर स्वर्गवास लिखने का रिवाज ही प्रचलित हो गया है, तब तो इस विचार के अनुसार तो सभी जीवों का प्रवेश एक मात्र स्वर्ग में ही होता होगा, अन्य सभी गतियाँ तो रिक्त ही रह जाएगी। अन्यत्र तो कहीं भी कोई जीव रहेंगे ही नहीं ?
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लोकव्यवहार की ही भाषा में हम इस प्रश्न का उत्तर देखेंगे तो रहस्य खुल जाएगा। पिता-पुत्रादि की मृत्यु के पश्चात् सगे-स्नेही स्वजन - मित्रादि वर्ग को जब
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