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________________ माया तैर्यग्योनस्य ॥ तत्त्वार्थसूत्र ।। तिरिआउ गूढहिअओ, सढो ससल्लो तहा मणुस्साऊ । माया-कपट , छल-प्रपंच घोर-विश्वासघात करनेवाले, मूढ प्रौर शठ हृदयवाले, मूर्ख स्वभाववाले, पेट में शल्ययुक्त पापवृत्ति रखनेवाले, अन्यों को ठगनेवाले, शीलगुणविहीन, मिथ्यात्व का उपदेश देनेवाले, गलत तोल-मान माप द्वारा व्यापार करनेवाले, कुकर्म की वृत्ति रखनेवाले तथा उसकी चर्चा करनेवाले, मिलावट करके बेचनेवाले, झूठी साक्षी देनेवाले, चोरी करनेवाले, निरन्तर आर्तध्यान में रहनेवाले, अत्यन्त आहारादि करनेवाले - अत्यन्त आहार की तीव्र संज्ञा रखनेवाले, चाहे जितना खाने पर भी सन्तुष्ट न होनेवाले, कृष्ण नील कापोत लेश्यावाले जीव प्रायः तिर्यंचगति बाँधकर तिर्यंच का आयुष्य लेकर पशु-पक्षी के रूप में ही जन्म धारण करते है। (४) देवगति योग्य आश्रव - सद्धर्म, सुभगो नीस्क्, सुस्वप्नः सुनय कविः। .. सूचयात्यात्मनः श्रीमान् नरः स्वर्गगमा गमौ॥ सुंदर धर्माराधना करनेवाले जीव, अच्छे भाग्यशाली, सौभाग्यशाली, पुण्योपार्जन करनेवाले पुण्यशाली, निरोगी कायावाले जिन्हें स्वप्न भी सुंदर आते हो, और जो सुंदर उत्तम सच्ची नीति-रितीवाले जीव हो, जिन में कवित्व शक्ति हो, ऐसे जीव स्वर्ग में से ही आए हैं और पुनः स्वर्ग में ही जानेवाले हैं - ऐसा संकेत प्राप्त होता है । सरागसंयमसंयमासंयमाकाम निर्जराबालतपांसि दैवस्य । तत्त्वार्थ अविरयमाइ सुराउ, बालतवी कोमनिज्जरो जयइ ॥ कर्मग्रंथ ॥ सरागसंयम चारित्र के आराधक, अविरतिवान् सम्यग्दृष्टि देशविरतिधर श्रावक जीवन की आराधना करनेवाले, अकाम निर्जरा करने से, बालतप करने से, अज्ञानकष्ट सहन करते हुए तपादि करने से दुःखगर्भित और मोहगर्भित वैराग्य वाले, शुभ ध्यानादि साधक, जिनपूजा भक्ति ध्यानादि करनेवाले, साधु-साध्वीजनों की सेवा वैयावृत्य सन्मानादि करनेवाले, शोक-संताप घटाने से, गुणानुरागी, व्रतपालनादि नियमधारी जीव, यतना का पालन करने से, जीवों पर दया अनुकंपादि करने की वृत्तिवाले, तथा गुरुवंदन से, लौकिक लोकोत्तर गुणधारी जीव देवगतियोग्य 50
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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