SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म-भगवान मोक्षादि सभी भाव वहाँ शाश्वत हो तो क्या नवकार अशाश्वत हो सकता है ? क्या यह संभव है ? क्योंकि नवकार के बिना मोक्षगमन कैसे होगा ? नवकार और इसके द्वारा ही मोक्ष संभव है। शास्त्रकार महर्षि स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि । पत्ता पाविस्संति पावंति य परमयपुरं जे । पंच नमुक्कार महारहस्स सामत्थजोगेणं ॥ में प्राप्त परम अर्थात् अंतिम श्रेष्ठ पद-मोक्षरूप नगर जिन्होंने भूतकाल किया है, जो भविष्यकाल में प्राप्त करेंगे और जो वर्तमान में प्राप्त कर रहे हैं, वे सभी पंच परमेष्ठि नमस्कार महारथ के सामर्थ्य योग से ही प्राप्त कर सके हैं, अर्थात् नवकार के बिना मोक्ष प्राप्ति सर्वथा असंभव है। इस श्लोक में नवकार की तीन काल की कालिक सत्ता बताई गई है । मात्र नवकार की अस्तित्ववाची सत्ता ही नहीं, बल्कि नवकार की फलदायिनी सक्रिय सत्ता का भी परिचय दे दिया गया है। नवकार से भूतकाल में मोक्ष प्राप्त हुआ है, भविष्य में होगा और वर्तमान में भी मोक्ष प्राप्ति हो रही है - इसलिये नवकार को सामर्थ्य योग का रथ कहकर उत्तम उपमा दी है। जैसे रथ गन्तव्य स्थान तक जाने के लिये साधन है, माध्यम है, उसी प्रकार नवकार भी गन्तव्य साध्य स्थान - मोक्षपद को प्राप्त करने के लिये साधन है, माध्यम है । इसी प्रकार त्रिकाल में नवकार की सत्ता सिद्ध होती है, तीनों ही लोकक्षेत्र नवकार की सत्ता सिद्ध होती है, और मात्र अस्तित्व प्रधान सत्ता ही नहीं, बल्कि साधनारूप कृतित्ववाची सक्रियता सिद्ध होती है। चौदह राजलोक - त्रिलोक - सर्वक्षेत्र तथा सर्वकाल की कालिक तथा क्षेत्रीय उभय दृष्टि कोण से विचार करने पर नवकार की सततता अखंडीतता सिद्ध होती है । चारों ही गति में नवकार की साधना जीवों की दृष्टि से विचार करें तो संसार में चार गतियाँ है । प्रतिदिन मंदिर में हम जो स्वस्तिक करते हैं, वह स्वस्तिक चार गतियों का सूचक - प्रतीक है। ऊपर की दाहिनी पँखुडी देवगति की सूचक है जब कि बाँयी पंखुडी मनुष्य गति की सूचक है, नीचे की दाहिनी पँखुडी नरकगति की, और बाँयी पँखुडी तिर्यंच गति की सूचक है । इस प्रकार चौदह राजलोक के समग्र ब्रम्हांड़ में जीव इन चार गतियों में स्थित है। ये चार गतियाँ समस्त संसार में व्याप्त है । जगत में जितने भी अनंत जीव है, 42
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy