SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नीचे ले गया। महात्माजी ने विश्राम किया और अपनी व्याकुलता का निवारण किया। नयसार ने धीरे से निवेदन किया- भगवन्! कृपा करके मुझे थोडा सा लाभ दो । लाभ लो के बजाय लाभ प्रदान करों कहने में विवेक पूर्ण भावना है। विनम्र भाव से निवेदन किया । नयसार का अत्यंत विनित विनम्र भाव देखकर महात्मा भी आकर्षित हुए। महात्मा ने भी अल्प में से अल्पतम ग्रहण करते हुए थोडा सा लाभ दिया। श्रम दूर कर आहार करने के पश्चात् महात्मा विहार करने हेतु उद्यत हुए । इतने में नयसार ने अत्यन्त पुनः विनित भाव से निवेदन किया - हे कृपालु ! अभी तो भीषण दाह है, तीव्र ताप है, पहले से आपके पाँवों में फफोले उठ पडे है। भगवन्! आप कैसे विहार कर सकेंगे? यदि आप कुछ देर तक और विश्राम कर लें, तब तक संध्या काल हो जाएगा। सूर्य पश्चिम में नीचे ढल जायेगा। कुछ छाया भी बढ जायेगी और गर्मी में भी न्यूनता आ जाएगी। मैं आपके साथ विदा करने आ जाऊँगा। अब आप तनिक भी चिन्ता न करें। अब आप मार्ग नहीं भूलेंगे। मैं वनपथ से सुपरिचित हूँ। मैं आपको मार्ग दिखाऊंगा । नयसार की इतनी अधिक विनम्र भावना देखकर महात्मा मुग्ध हो गए और उन्होंने स्वीकृति दे दी। विश्राम करने के पश्चात संध्या समय नयसार के साथ विहार प्रारंभ किया। पथ प्रदर्शन करता हुआ नयसार साथ चल रहा है। दूर से गाँव की सीमा दिखाई देने लगी अतः महात्मा ने नयसार से कहा - भाग्यशाली ! अब तुम जाओ, गाँव सामने ही दिख रहा है, अतः अब मैं जा सकूँगा। तुम्हें भी, अन्य कार्य होंगे। महात्मा के ये शब्द श्रवण कर नयसार कहता है - भगवन्! आपसे बिछुड कर जाने का मन नहीं होता, परन्तु हे कृपानिधान! मैंने तों आपको वन का मार्ग दिखाया है, अब आप कृपया मुझे भी कोई मार्ग निर्देशन करो, मेरे हितार्थ कोई उचित मार्गदर्शन कर मुझे कृतार्थ करो। इन शब्दों में नयसार की योग्यता और पात्रता का हमें स्पष्ट परिचय हो जाता है। उसने अपना हृदय खोलकर दिखा दिया। व्यवहार में मात्र बाह्य विनय प्रदर्शन ही पर्याप्त नहीं है, परन्तु आभ्यंतर भाव विनय भी गहन प्रभाव डाल देता है। मुनि महात्मा नयसार की उच्च कक्षा की योग्यता - पात्रता समझ गए । ओहो ! यह कितना उच्च कोटि का जीव है? चलकर स्वयं मार्ग पूछ रहा है। भविष्य में तीर्थंकर बनने वाले जीवों की इतनी ऊँची कक्षा की योग्यता पात्रता अवश्य होती है। भविष्य की भवितव्यता के लक्षण अल्पांश में भी वर्तमान में दिखाई पडे बीना नही रहते हैं । महात्माने नयसार को भली प्रकार से धर्म-मार्ग समझाया। यह आत्म 37
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy