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________________ कल्याण का मार्ग था। मुनि ने महामंत्र नवकार देते हुए कहा - भाग्यशाली! यह एक महामंत्र है। इसमें अरिहंत और सिद्ध - ये दो देव-देवाधिदेव भगवान है। आचार्य, उपाध्याय और साधु - ये तीनों ही गुरु स्वरुप है और इन पंच परमेष्ठियों को जो नमस्कार किये गए है, वे धर्म स्वरुप है, अतः देव-गुरु और धर्म की आराधना ही आत्मा को तारक सिद्ध होती है। निश्चिंत होकर तुम इस महामंत्र की आराधना उत्तम प्रकार से करते रहना । धर्मलाभ । मुनि महात्मा की अमृतधारा बरसाती हुई पीयुष वाणी और उसमें झरता हुआ करुणारस और उसमें भी महामंत्र नवकार की उत्कृष्ट साधना प्राप्तकर नयसार अर्थादि के चिन्तन में निमग्न हो गया। वह इसे अन्तरात्मा में भावपूर्वक स्वीकार कर रहा था। वह उच्च अध्यवसाय में आरुढ हो गया और यथाप्रवृत्तिकरण - अपूर्वकरण, आदि की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई। अन्तर्मुहूर्त में तो राग-द्वेष की जटिल ग्रंथी को भेदकर नयसार की आत्मा घोर मिथ्यात्व के पडल दूर कर उच्च कोटि की श्रद्धा स्वरुप सम्यग दर्शन प्राप्त करती है। नयसार इसी चिन्तन की धारा में घर लौटता है। आज मानो चिन्तामणि रत्न प्राप्त हुआ हो - इतना उसे आनंद है, इतना वह रोमांचित है। उसकी समग्र रोमराजी विकस्वर हो गई है। ऐसी ही आनंद और उत्साहपूर्ण पलें होती है जिस में आत्मा प्रबल कर्म निर्जरा करती ही जाती है। पत्नि ने भोजन करने का निमंत्रण दिया, परन्तु नयसार का पेट तो नित्य भरता ही था, आज तो उसका मन भर गया था, तृप्त हो चुका था। मन संसार को और धर्म को, आत्मा को और जगत को तथा बाह्य विभावावस्था तथा, अभ्यंतर स्वभावावस्था को भिन्न भिन्न समझ कर चलते रहे विभावावस्था के अध्यवसायों का त्यागकर उपादेय में निमग्न रहने लगा । नयसार ने जीवन का शेष काल इसी उत्तम साधना में व्यतीत किया और पंचपरमेष्ठि महामंत्र का सतत रटन जारी रखा। सजाग सावधान आत्मा पापभीरु और भवभीरु बनी। महामंत्र की महान् साधना में स्थिर रहकर समाधिस्थ होकर नयसार ने स्वशरीर का त्याग किया। मृत्यु को क्या सुधारा मानो सम्पूर्ण जीवन ही सुधार लीया। जीवन धन्य धन्य बन गया। क्षण क्षण पावन हो गई। नयसार की आत्मा यह आयुष्य पूर्ण कर दूसरे भव में स्वर्ग सिधारी। वहाँ भी प्रबल साधना की । नवकार के प्रभाव से नयसार ने अपने तीसरे भव में भगवान ऋषभदेव के पौत्र और भरत चक्रवर्ती के पुत्र के रुप में जन्म धारण किया। अपने पितामह प्रथम तीर्थंकर और पिता चक्रवर्ती तथा स्वयं इसी अवसर्पिणी काल के 28
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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