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जन्म से देव-गुरु की पहचान आदि के संस्कार भी मिले नहीं। बात भी सही हैं, मिले तो कहाँ से मिले? अतः कोई जैन साधु मुनिराज पधारें - ऐसा न बोलते हुए नयसार तो बोलता है कि कोई अतिथि महात्मा पधारे तो अत्युत्तम हो, परन्तु द्रव्य क्षेत्र-काल सभी विपरीत है। भीपण गर्मी के ताप में भर मध्यान्ह में और वह भी वन्य प्रदेश में कोई भी अतिथि महात्मा कहाँ से पधारें। वन में कोई (highway) राष्ट्रिय मार्ग भी नहीं-आधुनिक तारकोल की सडकें भी नहीं फिर ऊपर से ऐसी भीषण धूप की गर्मी - ऐसे में महात्मा कहाँ से मिले। जैन साधु तो खुले पाँव चलते है। भर मध्यान्ह में धरती तो गर्म तवे की भाँति तप्त होती है, पाँव रखे तो पापड की तरह सिक जाएँ - ऐसी गर्मी - ऐसा विपरीत काल और समय और उस में भी वन्य प्रदेश महात्माओंके आगमन हेतु द्रव्य-क्षेत्र काल तीनों की दृष्टि से प्रतिकूल है, फिर भी नयसार के मन में भावना प्रबल रुप से जगी है। देश-क्षेत्र और काल भले ही प्रतिकूल हों, परन्तु भावना तो, अनुकूल है, अतः नयसार दूर-सुदूर वन की पगदंडी की ओर दृष्टि दौडाता हुआ अतिथि महात्मा के पधारने की राह देखता हुआ टकटकी लगाकर बैठा है। भावना प्रबल वेग पकडती जाती है। स्वयं इसी विचार में मग्न बैठा है, स्वयं रोटी खाता नहीं हैं बल्कि भावनायोग में स्थिर होकर बैठा है।
शास्त्रकार महर्षि लिखते हैं कि - "याद्दशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति ताद्दशी तस्य” - अर्थात् जिसकी जैसी भावना होती है, उसे वैसी ही सिद्धि प्राप्त होती है। सच्ची भावना प्रबल हो, तो सिद्धि अवश्य प्राप्त होती है। आश्चर्य की बात थी। असंभव लगने पर भी उस भले मध्यान्ह में कोई मुनि महात्मा विहार करते हुए मार्ग भूल गए और इस ओर की पगदंडी से आ रहे थे। दूर टकटकी लगाकर प्रतीक्षा में खडें नयसार ने अतिथि महात्मा को आते हुए देखा, और उसका हृदय बाग-बाग हो उठा, वह पुलकित हो गया, रोमांचित हुआ और हर्षोन्मत होकर उनके सामने उनका स्वागत करने हेतु दौड पडा। व्यक्ति में रही हुई योग्यता नमस्कार के प्रथमदर्शी व्यवहार से ही प्रकट हो जाती है। इसी नियम के अनुसार नयसार सामने दौडकर गया और उन्हें करबद्ध नमस्कार किया। वंदन, पंचांग प्रणिपात आदि गुरुवंदन की विधि आती नहीं, जन्म से जैन नहीं, अतः सीखा हुआ भी नहीं, जानता भी नहीं, परन्तु नमस्कार करना तो वह भली प्रकार जानता है। उसमें शिष्टाचार है, उसने तुरन्त नमस्कार किया, और विनती की - हे भगवन्! पधारो - इस ओर शीतल छाया में पधारो। वन था - उसका घर वहाँ नहीं था, अतः आम्रवृक्ष की शीतल छाया
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