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द्वीप १६ लाख योजन के विस्तारवाला है, परन्तु उसके बीचो-बीच मानुषोत्तर पर्वत स्थित है, जिसके इस ओर अर्थात् मानुषोत्तर पर्वत तक ही मानव बस्ती है, परन्तु उसके बाहर आगे के द्वीप-समुद्रों में मानव बस्ती का अभाव है, अर्थात् वहाँ मानव बस्ती नहीं है । ..
इस ढाई द्वीप में जंबूद्वीप - धातकी खंड, और पुष्करार्ध द्वीप के क्षेत्र में १५ कर्मभूमियाँ, ३० अकर्मभूमियाँ और ५६ अन्तर्वीप के क्षेत्र हैं । ऐसे कुल मिलाकर १०१ क्षेत्र है। ये मानव बस्ती के मानव जनसंख्या वृद्धि के क्षेत्र है। इन १०१ क्षेत्रों में से मात्र १५ कर्मभूमिके क्षेत्रों में ही धर्म है। शेष अन्यत्र कहीं भी धर्म नहीं है - जिसकी कुछ विचारणा हम पूर्व में कर चुके हैं। उन पाँच भरत, पाँच ऐरावत और पाँच महाविदेह इस प्रकार कुल १५ कर्मभूमि के क्षेत्रों में ही धर्म है। यहीं पर तीर्थंकर भगवंत तथा साधु-साध्वी होते हैं, यहीं पर नवकार महामंत्र गिना जाता है। कालिक और क्षेत्रिय दोनों ही दृष्टि से नवकार महामंत्र की आराधना-उपासना वहाँ सदैव चलती रहती है। भरत और ऐरावत क्षेत्र में काल परिवर्तनशील है। और परिवर्तित होते रहते हैं, परन्तु पाँचो ही महाविदेह क्षेत्र में काल कभी भी परिवर्तित नहीं होता। वहाँ सदैव चौथा आरा ही चलता रहता है, इसीलिये वहाँ सदाकाल के लिये तीर्थंकर भगवंत होते रहते हैं और सदैव वहाँ धर्म शाश्वत रुप से प्रवर्तित रहता है, अतः वहाँ नवकार महामंत्र की आराधना भी सदैव शाश्वत रुप से चलती ही रहती है।
नयसार की नवकार साधना -
इस जंबूद्वीप के मध्य स्थित महाविदेह क्षेत्र में पश्चिमी महाविदेह में नयसार नामक एक ग्रामप्रमुख रहता था। वह लकडहारे की तरह वन में जाकर लकडी काट कर लाता था और अपना निर्वाह चलाता था। एक बार अपने स्वामी की आज्ञा से वन में काष्ठ लेने हेतु गया था। मध्यान्ह के समय जब भोजन करने का समय हुआ, तब वह अपनी रोटी हाथ में लेकर बैठा था कि उसके मन में भावना जागृत हुई - अहा ! इस समय यदि कोई अतिथि महात्मा पधारे तो कितना उत्तम हो। मैं उन्हें खिलाकर ही फिर खाऊ । मेरा आहार उन्हें अर्पित कर मैं आनंदित बनू ! मैं तो नित्य खाता ही आया हूँ, परन्तु कभी भी खिलाकर नहीं खाया। अतः यदि आज कोई अतिथि महात्मा पधारे तो मैं कृतकृत्य हो जाऊँ ।
जरा सोचिये ! नयसार जन्म से जैन नहीं हैं । हमारी तरह नयसार को
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