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________________ चतुर्थ गुणस्थान पर चढते हुए सम्यक् श्रद्धाधारी अनेक सम्यक्त्वशील देवतागण नवकार महामंत्र की आराधना-उपासना सतत करते रहते हैं क्योंकि सम्यक्त्व देवगुरु- धर्म की श्रद्धा पर आधारित है और इन्हीं देव-गुरु- धर्म का स्वरुप महामंत्र नवकार में है, बल्कि ऐसा कहो कि देव-गुरु- धर्म को नमस्कार स्वरुप संपूर्ण नवकार महामंत्र है। अतः जो सम्यग्दृष्टि जीव होंगे वे सभी नवकार महामंत्र की श्रद्धावाले अवश्य होंगे, परन्तु जो नवकार महामंत्र वाले जीव होंगे, वे सम्यक् श्रद्धावान हो भी सकते हैं और न भी हो - यह संभव है। जैसे किसी मुसलमान या हिन्दू ने पुस्तक में से नवकार महामंत्र पढा, उसका जाप किया, और उसे सीखा। इस से हम यह कह सकेंगे कि उसे नवकार का ज्ञान होगा उसे नवकार आता होगा, परन्तु हो सकता है उस में सच्ची श्रद्धा उत्पन्न न भी हुई हो, मात्र दुःख, रोग निवृत्ति हेतु ही वह कदाचित उपयोग करता होगा परन्तु सम्यग् श्रद्धावान जीव नवकार महामंत्र पर अटूट श्रद्धावान होगा ही इस में तनिक भी संदेह की शक्यता नहीं है । इस प्रकार देवगति में तथा नरकगति में सम्यग्दृष्टि अनेक श्रद्धालु नवकार महामंत्र की आराधना-उपासना सतत करते रहते हैं । चौदह राजलोक के विशाल क्षेत्र में से ७ राजलोक का बृहत् ऊर्ध्वलोक का अर्ध राज्य देवताओं के आधीन है और इसी प्रकार नीचे के ७ राजलोक का अधोलोक का आधा लोक नरक के नारक जीवों के हाथ में है। इस प्रकार दोनों के मध्य चौदह राजलोक का आधा आधा राज्य विभक्त हो गया। अब मध्य का जो मात्र १८०० योजन का ऊर्ध्व, अधोलोक के मध्य का भाग शेष बचा, वही मनुष्य और तिर्यंच जीवों के लिये हैं। इस प्रकार हम देखते हैं, कि देव और नरक का क्षेत्र भी अधिक विशाल है, और इसी प्रकार वहाँ दोनों की संख्या भी असंख्य की है । उन में सम्यग्दृष्टि जीवों की संख्या भी अधिक होगी अतः वहाँ नवकार महामंत्र की आराधना भी अधिक परिमाण में होती होगी। अब हम मनुष्य और तिर्यंच गति में नवकार का विचार करें। तिर्छलोक में नवकार की आराधना - तिर्छा लोक का क्षेत्र ऊर्ध्व और, अधोलोक अर्थात् देवलोक और नरक के बीच का सीमित क्षेत्र है। चौदह राजलोक के बीचो बीच मध्य में मेरुपर्वत आया हुआ है। मेरु पर्वत की समतल भूमि चौदह राजलोक के मध्य का केन्द्र हैं । इस समतल भूमि से ९०० योजन ऊपर और उसी से ९०० योजन नीचे इस प्रकार कुल 33
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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