SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रहता है। __नयसार जो भगवान महावीर का जीव था अपने प्रथम भव में नवकार महामंत्र का स्मरण करके नवकार महामंत्र में तल्लीन होकर मृत्यु की शरण में जाकर दूसरे भव में सीधा स्वर्ग में गया। क्या उस जीव ने देवलोक में नवकार महामंत्र का स्मरण नहीं किया होगा? यह संभव ही नहीं है, बल्कि उसने तो सहस्त्रगुना अधिक स्मरण किया होगा। भगवान महावीर स्वामी के नयसार से लगाकर महावीर तक के सत्ताईस भवों में से कुल दस भव तो देवगति में ही हुए थे। सागरोपम के लम्बे लम्बे असंख्य वर्षोंके आयुष्यवाले भवों में कितनी प्रबल नवकार मंत्र की साधना उन्होंने की होगी। २६ वाँ भव दसवे प्राणत नामक देवलोक में २० सागरोपम के आयुष्य की स्थिती वाला भव था। एक सागरोपम का परिमाण भी, असंख्य वर्षों के तुल्य होता है, तो यह तो २० सागरोपम का आयुष्य था, तो कहो कितने वर्ष हुए? असंख्य x २० असंख्य वर्षोंका आयुष्य मात्र छब्बीसवे भव का ही था। इसी प्रकार भगवान पार्श्वनाथ का यहाँ नौवे भव में इसी देवलोक में इतना ही आयुष्य था। उन्होंने यहाँ ५०० कल्याणकों की उत्तम आराधना की थी। इस प्रकार हम पाते हैं कि सम्यग्दृष्टि देवतागण स्वर्ग में सतत नवकार महामंत्र का रटन करते रहते हैं, वहाँ नवकार की उपासना-आराधना चलती ही रहती है। दूसरी बात यह है कि देवलोक में-देवभव में जन्म से ही अवधिज्ञान प्राप्त होता है। वह उस जीव के लिये सुलभ होता है, फिर प्रश्न ही कहाँ रहा? उस अवधिज्ञान से वह जीव पूर्व भवादि का स्मरण करता है, उपयोग द्वारा देखने पर उसे तुरन्त ही सब ख्याल आ जाता है, अतः देवतागण अपनी आराधना उपासना भी भली प्रकार कर सकते हैं । इसी हेतु से जिंस धर्म की हम आराधना करते है, हमारे इसी धर्म की स्वर्ग के देवतागण भी आराधना करते है और इस प्रकार वे हमारे सहधर्मी-साधर्मीक बंधु हुए । शक्ति और ऋद्धि-सिद्धि में हम से अधिक मात्रा में उनके पास सब कुछ है। अतः वे हमारे ज्येष्ठ बन्धु कहलाते है । परन्तु मनुष्य गति और मानव जीवन में हम व्रत-विरति अथवा पच्चक्खाण का विशेष धर्म कर सकते हैं, अतः देवताओंकी अपेक्षाकृत हमारा मानवसृष्टि का एक गुणस्थान उच्च गिना जाता है। मनुष्य पंचम गुणस्थान में पहुँचकर देशविरतिधर श्रावक बन सकते हैं, जब कि देवतागण चतुर्थ गुणस्थान में रहकर अविरतिधर सम्यग्दृष्टि श्रद्धालु बन सकते हैं । अतः धर्म की दृष्टि से मनुष्य उच्च होते हुए भी दोनों स्वधर्मी सहधर्मी बंधु कहलाते हैं । इस प्रकार 32
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy