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कल्याणक के प्रसंग पर समवसरण की रचना करते हैं, समवसरण में बैठकर प्रभु के वचनामृत का पान करते हैं, और प्रभु की सेवा में उपस्थित भी रहते हैं, परन्तु इतना सब कुछ करने पर भी व्रत - विरति अथवा पच्चक्खाणमय धर्माराधना नहीं कर सकते हैं । वे मात्र भक्ति-दर्शन-पूजन प्रधान धर्म ही कर सकते हैं- नवकार महामंत्र का जाप-ध्यान भली प्रकार कर सकते हैं । जैसे जैसे ऊपर ऊपर के उच्च स्वर्ग में जाते हैं वैसे वैसे देवतागण न्यूनतम भोग भोगते है, और अनुत्तर विमान में तो ३३ सागरोपम तक दीर्घतम आयुष्य काल में ध्यान, तत्त्वचिंतन आदि में काल व्यतीत करते हैं । अन्य व्रत-विरति अथवा पच्चक्खाण आदिमय धर्म अशक्य होने के कारण देवतागण सविशेष रुप से भक्ति - दर्शन-पूजन और अधिकतर तो नवकार महामंत्र का स्मरण भली प्रकार से करते रहते हैं । पार्श्वकुमारने काष्ठ में जलते हुए जिस सर्प को नवकार मंत्र सुनाया था, वह जीव मरण के समय नवकार मंत्र में समाधि रखकर, अपनी मति और गति दोनों को ही सुधार लेता है। वह सीधा ही नाग देवलोक में पहुँचकर नागराज धरणेन्द्र बनता है। वह इसका सतत स्मरण करता
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