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________________ देवगति में नवकार की आराधना जिस प्रकार हमने नरक गति में नवकार महामंत्र के विषय में विचारणा की है, उसी प्रकार देवगति की भी विचारणा करनी है। नरक की अपेक्षा स्वर्ग में नवकार की आराधना की संभावना अधिक बढ जाती है। स्वर्ग बहुत ही विशाल है । ७ राजलोक जितना ऊर्ध्व लोक का क्षेत्र है । तिर्च्छा लोक के मेरुपर्वत के शिखर के पश्चात असंख्य योजन के बाद प्रथम देवलोक प्रारंभ होता है। देवलोक में दो विभाग हैं- एक कल्पोपपन्न और दूसरा कल्पातीत । कल्पोपपन्न देवलोक में १२ देवलोक आते हैं। बाद के कल्पातीत में नौ ग्रैवेयक और पाँच अनुत्तर कुल १४ देवलोक आते हैं । इस प्रकार वैमानिक देवजाति के १२ +९+५ = २६. देवलोक है । देवगति में कुल चार जातियाँ मुख्य है वे है - (१) भवनपति, ( २ ) व्यंतर (३) ज्योतिष्कमंडल और (४) वैमानिक । इस प्रकार चारों ही जाति के देवतागण समस्त देवगति में रहते हैं । भवनपति के आवासादि तथा सर्वत्र देवलोक के क्षेत्र में शाश्वत जिन प्रतिमाएँ और शाश्वत जिनालय हैं । जीवविजयजी महाराज द्वारा रचित सकलतीर्थ वंदनासूत्र जो हम नित्य प्रातः राई प्रतिक्रमण में बोलते हैं, उस उन्होंने बताया है कि चौदह राजलोक में शाश्वत जिन मंदिर कौन से और कितने हैं, उनमें शाश्वती जिन प्रतिमाएँ कितनी हैं, उनकी संख्या बताई है। करोडों से ऊपर की इतनी बडी संख्या में मंदिर और मूर्तियाँ अत्यन्त विशाल परिमाण में हैं। इनके अतिरिक्त तीर्थकर भगवान के निर्वाण कल्याणक आदि प्रसंगो पर देवतागण वहाँ उपस्थित होते हैं तथा अग्नि-दाह के पश्चात भगवान की दाढा, अस्थि आदि लाकर उसे अपने आवासरुप विमान में रत्न- मंजूषा में रखते हैं और उसकी पूजा-अर्चना करते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वर्ग के देवताओं के लिये सामायिक, उपवास, प्रतिक्रमण पौषधादि व्रत - पच्चक्खाण या विरति-धर्म संभव नहीं है। अतः वे एक मात्र भगवान के दर्शन, पूजन या तीर्थयात्रादि ही कर सकते हैं। उसके लिये वे नंदीश्वर में जाते हैं। वहाँ बावन जिनालयादि जो शाश्वत तीर्थ होते हैं वहाँ वे अष्टान्हिका महोत्सवादि करते हैं, आठ-आठ दिन तक विशाल रुप से पूजा - भक्ति आदि करके सम्यक्त्वी देवतागण आनंदानुभूति करते हैं । इसी प्रकार तीर्थंकर भगवान के जन्माभिषेक महोत्सव आदि भी मनाते हैं। प्रभु मेरु पर्वत पर ले जाकर उनका अभिषेक करते हैं, अष्ट प्रकार की पूजा रचते हैं। इसी प्रकार तीर्थंकर भगवान के जन्मादि कल्याणक मनाते हैं, केवलज्ञान 30 .
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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