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________________ है, तब नवकार का क्यों नहीं? तब तो पुनः हमें यह मानना पडेगा कि उस काल में अरिहंत भगवंत तो थे परन्तु उन्हें नमस्कार न होता था? या नमस्कार करने वाला कोई था ही नहीं? यदि यह बात स्वीकार करते हैं तो पुनः यह प्रश्न उठेगा कि क्या उस समय इन पाँच के सिवाय अन्य कोई जीव ही न था? क्या अन्य कोई अस्तित्व में ही न था? यह बात भी युक्तिसंगत नही लगती हैं। (यदि उस काल में कोई जीव ही न थे तो पंच परमेष्ठि कहाँ से आए? क्या ये पाँचो ही आकाश में से टपक पडे? क्या ये स्वतः ही पंच परमेष्ठि बने हुए तैयार ही नीचे उत्तर आए? क्या क्रमशः साधना करके आगे बढे?) अतः उस समय भी अनंत जीवों का अस्तित्व होना हमें स्वीकार करना ही पड़ता है और जब अनंत जीवों का अस्तित्व हम स्वीकार करते हैं तब हम यह कैसे मान सकते हैं कि उस काल में उन्हें नमस्कार करनेवाले कोई थे ही नहीं? कोई उन्हें नमस्कार ही न करते थे? यह कैसे मान लें? मान लो कि नमस्कार ही न करते थे तो क्यों नहीं करते थे? क्या कारण रहा होगा? उत्तर क्या दोगे? अतः ऐसा कहने की पृष्ठ भूमि में हमारे पास कोई आधार ही नहीं है। अतः मानना ही होगा कि जब पंच परमेष्ठि थे, तब आज जैसा सम्पूर्ण जगत ऐसा ही था, सभी जीव भी थे और भी सब कुछ था। अतः अन्य प्रकार के विचारों के लिये अवकाश ही नही रहता। अर्थात् पंच परमेष्ठियों को उस काल में जो नमस्कार होते थे, जो नमस्कार किये जाते थे, उन्हीं नमस्कारों की रीति से उन्हीं नमस्कारों के शब्द इस नवकार महामंत्र में रखे गए हैं। अतः ‘एसो पंच नमुक्कारो' - यह पंचम पद है जो कि पाँचों ही परमेष्ठियों को तथा उन्हें नमस्कार - ये दोनों तथ्य सिद्ध करता है। सभी को नमस्कार होते थे - होते हैं और भविष्य में भी होते रहेंगे। अब यह देखते हैं कि चौदह राज लोक रुप समस्त ब्रम्हांड में नवकार महामंत्र का अनादि स्मरण किस प्रकार हो रहा है। (Jain Cosmology) के अनुसार समस्त (Cosmos) अर्थात् संपूर्ण ब्रह्मांड का यह चित्र है। जैन दर्शन में इसके लिये चौदह रज्जुलोक-चौदह राजलोक शब्द प्रयुक्त हुआ है बस, इस चौदह राजलोक से परे कुछ भी नहीं है। इससे परे न कोई जीवसृष्टि है अथवा न कोई अजीव सृष्टि है, न कोई पुद्गल परमाणु है, न कोई सूक्ष्म बादर जीव। पंचास्तिकायादि जो कुछ भी है जीसका अस्तित्व हैं उसकी सत्ता मात्र इस चौदह राजलोक तक परिमित है । यहि ब्रह्मांड का क्षेत्र हैं और जो कुछ भी है वह इसके अन्तर्गत ही है, बाहर तो मात्र आकाश के सिवाय कुछ भी
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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