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________________ परन्तु मोक्ष की सिद्धशिला का उद्घाटन (Opening Ceremony) कभी भी किसी के द्वारा नहीं हुआ और कौन सा जीव सर्व प्रथम मोक्ष में गया इसका उत्तर भी अप्राप्य है। इसीलिये नवकार की आदि का उत्तर भी अप्राप्य है। जब से अरिहंत हुए हैं, तब से उन अरिहंतों का स्थान इस नवकार महामंत्र में रहा है। तभी से उन अरिहंतों को इस नमस्कार महामंत्र के द्वारा नमस्कार होता रहा है। वह आज दिन तक यही है और जब से जीव मोक्ष में जाते रहे हैं तभी से यह इसी प्रकार है। जिस काल से जीव सिद्ध-बुद्ध मुक्त होते थे, तभी से उन सिद्धात्माओं को इस नवकार महामंत्र के माध्यम से नमस्कार होता आया है आज दिन तक हो रहा है अर्थात इस सिद्धान्त के आधार पर नवकार महामंत्र भी अरिहंतों और सिद्ध भगवंतों के सदृश ही शाश्वत है। यदि उनकी आदि का पता चले तो ही नवकार की भी आदि प्राप्त हो सकेगी। अरिहंतो और सिद्धों की आदि नहीं, अनादि मानने कि बात गले उतरती है । परन्तु नवकार महामंत्र की अनादिता मानने की बात गले नहीं उतरती। यह कैसे हो सकता है? तब फिर क्या हम यह मान ले कि जिस काल में अरिहंत सिद्ध थे, या हुए थे, तब उन्हें नमस्कार करने की क्या कोई क्रिया ही न थी? क्या उन्हें नमस्कार ही नही किये जाते थे? क्या उन्हें नमस्कार करनेवाले कोई थे ही नहीं? इसका अर्थ यह हुआ कि क्या उस समय अन्य कोई जीव थे ही नहीं? और यदि कोई अन्य जीव थे ही नहि तो जो अरिहंत या सिद्ध बने उनके जीव कहां से आये? क्या वे आकाश में से टपक पडे ? तो आकाश में जीव कहां से आये? और यदि कोई आए? और आकाश भी कहाँ से आया? ऐसे सैंकड़ों प्रश्न उपस्थित हो जाएँगे। अतः अरिहंत सिद्ध कौन बने? कोई जीव ही थे न। अरिहंत और सिद्ध तो पद है - अवस्थाएँ है। कोई भी भव्य जीव ये पद प्राप्त कर सकता है - अर्थात् उस समय भी अनंत जीव थे और उन अनंतानंत जीवों में से कोई जीव अरिहंत बना या कोई जीव मोक्षगमन कर सिद्ध बना। इस प्रकार जैसे अरिहंत और सिद्धि की सिद्धि होती है उसी प्रकार उस उस काल में हुए अरिहंत के समय में भी आचार्य उपाध्याय और साधु भी थे। गेहूँ के साथ जैसे घास की सिद्धि होती है, उसी प्रकार अरिहंतादि के. साथ आचार्यादि सभी की सिद्ध होती है, अतः इन पंच परमेष्ठियों की सिद्धि अनादि अनंत काल से है ऐसा मानना ही अधिक सुसंगत है, इनका अस्तित्व शाश्वत है। यदि पंच परमेष्ठि का अनादि अनंत नित्य शाश्वतपन तर्क से सिद्ध होता 24
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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