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पूजा सूचक अहँ पद - अहँ मह पूजायाम् । संस्कृत धातु कोष के नियमानुसार अहँ धातु और 'मह' धातु दोनों पूजा के अर्थ में प्रयुक्त होती है । “अहँ" धातु से 'अहँ' पद परमात्मा का सूचक वाचक पद बना है, सिद्ध हेम में स्पष्ट बताया गया है कि
अर्ह - मित्यक्षरं ब्रह्म वाचकं परमेष्ठिना ।
सिद्धचक्रस्य सद्बीजं, सर्वत्र प्रणिदद्महे ।। ‘अर्ह' धातु से बना हुआ ‘अर्ह' शब्द ब्रह्मवाचक है, परमेष्ठि का वाचक है और सिद्धचक्र का बीजमंत्र है । सब प्रकार से यह प्रणाम करने योग्य है । इस प्रकार अहँ पद अर्ह धातु से पूज्य, पूजा के योग्य, पूजनीय, पूज्यतम अर्थ में है अतः इस पद से वाच्य अरिहंत परमात्मा है ।
इसी प्रकार ‘मह्' धातु पूजा के अर्थ में है । लोगस्स सूत्र में 'कित्तिय-वंदियमहिया,' जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा' इस लोक में जो उत्तम महापुरूष सिद्ध हुए हैं उनका मैं कीर्तन करता हूं, वंदन करता हूं और उनकी पूजा करता हूं । प्रभुभक्ति के कीर्तन, वंदन और पूजन ये तीन प्रकार बताए गए हैं । इन तीनों प्रकार से प्रभु - परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए । मूर्ति और मूर्तिपूजा के विरोधीजन अधमस्वार्थ से प्रेरित होकर अपनी बात सिद्ध करने के हेतु अधम कक्षा के पापाचार करते हैं
और 'मह' धातु दुनिया के सभी संस्कृत व्याकरण के आधार पर पूजा के अर्थ में प्रयुक्त होते हुए भी बलात् जबरन निरर्थक 'महिमा' अर्थ बिठा देते हैं । जो कोई भी 'महिया' के स्थान पर 'महिमा' पाठ रखने या बदलने की घोर कुचेष्टा करते हैं तो यह शास्त्र विरुद्ध कदम उठाया ही कहलाएगा । 'हम भगवान की महिमा बढाते हैं' ऐसा अर्थ बिठाने का प्रयास प्राणों की बाजी लगाकर भी करते हैं । भगवान के विरोधी भगवान की क्या महिमा बढानेवाले थे ? बल्कि भगवन की जो महिमा थी उसे भी घटाने की कुचेष्टा की है यद्यपि उनके इस कार्य से प्रभु की महिमा रत्तीभर भी कम नहीं हुई है, वे इसे घटाने में असफल रहे हैं, परन्तु निरर्थक अभिमान से फुल रहे हैं।
चैत्य शब्द का विपर्यास :... 'चैत्य' शब्द भी जिनमंदिरवाची शब्द है । उसे भी मंदिर से मूर्ति के विरोधियो ने बदल कर विपरीत अर्थ करने की कोशिष की है । चैत्य का अर्थ जिनमंदिर होता है । अभिधान चिंतामणि जैसे शब्द कोष में हेमचन्द्राचार्य महाराज ने ९९४ वे श्लोक
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