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में प्रमाण देते हुए कहा है कि - 'चैत्यविहारौ-जिनसद्मनि' चैत्य, विहार और जिनसद्मन् ये सभी मंदिरवाची संस्कृत शब्द हैं । जहाँ जहाँ जिनेश्वर भगवान के चैत्य अर्थात् मंदिर व मूर्तियाँ हैं वहाँ नमस्कार करते हैं -
जावंति चेइयाई उड्ढे अ अहे अ तिरिअलोए अ । .... सव्वाइं ताई वंदे ईह संतो तत्थ संताईं ॥
आवश्यक सूत्र की यह गाथा है जो नित्य चैत्यवंदन विधि के सूत्रों में प्रयुक्त है - उसमें भी स्पष्ट कहा है कि उर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्छालोक में जहाँ जहाँ भी जिनेश्वर भगवंतो के चैत्य अर्थात् मंदिर - मूर्तियाँ हैं उन सभी को मैं यहाँ रहा हुआ भी उन सभी जिन प्रतिमाओं को नमस्कार करता हूँ।
___ चौदह राजलोक के अखिल ब्रह्मांड में तीन लोक हैं । उर्ध्वलोक को स्वर्ग अथवा देवलोक, अधोलोक को नरक और पाताल तथा तिर्छालोक को मनुष्यलोक अथवा तिर्यक लोक भी कहते हैं । इन तीनों ही लोक में सर्वत्र जिनेश्वर भगवान के मंदिर हैं उनमें शाश्वती प्रतिमाएं हैं । नित्य प्रभात में 'राई प्रतिक्रमण' करनेवाले आराधक 'सकल तीर्थ वंदु कर जोड' सूत्र बोलते हुए तीनों ही लोक के शाश्वत मंदिरों - मूर्तिओं को नमस्कार करते हैं । उस सूत्र के आधार पर कहाँ कितने मंदिर और कितनी मूर्तियाँ हैं उनकी संख्या सूचनार्थ यहाँ देते हैं - जिन्हें देखने से ख्याल आ जाएगा ।
कुल बिंब
स्वर्ग में रहे हुए शाश्वत जिन चैत्य तथा शाश्वत जिनबिंबकहाँ ? कितने प्रासाद ? प्रत्येक प्रासाद में
कितनी जिनप्रतिमा ? पहले देवलोकमें ३२,००,००० १८० . दूसरे देवलोक में २८,००,००० १८० तीसरे . . १२,००,००० १८० चौथे
८,००,०००
४,००,००० छठे
५०,००० सातवे
४०,००० आठवे
६,००० १८० नववे-दशवे
४००
१८० १८०
पाँचवे
५७,६०,००,००० ५०,४०,००,००० २१,६०,००,००० १४,४०,००,००० ७,२०,००,००० ९०,००,००० ७२,००,००० १०,८०,०००
७२,०००
१८०
१८०
१८०
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