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पूज्यभाव बना रहे इसके लिये ही पूजा है अतः नवकार महामंत्र में 'नमो' शब्द अरिहंतादि पंच परमेष्ठि भगवंतो के प्रति पूज्य-भाव-अहोभाव प्रकट करने का सूचकशब्द है । पूज्य भाव मनोगत भाव है और पूजा इसी की द्योतक व्यवहार में आचरणीय प्रक्रिया है । पूजा क्रियात्मक है । इसकी भी सतत आवश्यकता रहती ही है । सतत क्रियाचरण न रहे तब भी परिणामों में निर्ध्वंसता आ जाती है, विकृति आ जाती है क्यों कि मानव की बाह्य क्रियाशीलता तो घटनेवाली नहीं है इसका मुख्य कारण मन की चंचलता है । वह तो काया से क्रिया करवाती ही रहेगी और काया तो कायिक क्रिया - प्रवृत्ति करती ही रहेगी । इसमें जिनपूजा आदि की शुभ प्रवृत्ति सर्वोत्तम प्रकार की क्रिया-प्रवृत्ति है । इसे यदि छोड दी जाएगी तो जी बाह्य अन्य सैंकड़ो प्रकार की ऐसी प्रवृत्तियों में डूवे रहेंगे, जो पापं का बंध करवायेगी । बाह्य जगत की अन्य सभी प्रवृत्तियों करना, करवाना और इसमें कर्मबंधन करवाना - इसकी अपेक्षा तो सर्वोत्तम क्रिया जिनपूजा - भक्ति क्यों न करें ? अर्थात् अवश्य नित्य आचरणीय हैं ।
अष्टप्रकारी, जिनपूजा द्रव्यपूजा
भावपूजा अंगपूजा
अग्रपूजा जल चंदन पुष्प धूप दीपक अक्षत नैवेद्य फल
- स्तुति स्तवना जापं चैत्यवंदन ध्यानादि
इस प्रकार अष्ट प्रकारी पूजा का स्वरुप है । सत्तरभेदी पूजा, चौसठ प्रकारी पूजा, नव्वाणु - (निन्यानवे) प्रकारी पूजा आदि अनेक प्रकार है, जिनमें द्रव्यों के प्रकार बढते रहते हैं । अनेक प्रकार से द्रव्य चढाए जाते हैं, इस तरह प्रकारों में वृद्धि होती जाती है ।
ये सभी प्रकार की पूजाएं सहेतुक - सार्थक हैं । इन में एक भी प्रकार निरर्थक नहीं बताया गया है । सभी पृष्ठभूमि में उत्तम प्रकार के भाव रहे हुए हैं । ऐसी ही द्रव्यपूजा करके कर्म निर्जरा करके केवलज्ञान और मोक्ष प्राप्त करने वाले महापुरुषों के कई दृष्टांत शास्त्रो में सुवर्णाक्षरों से अंकित है । जैसे नागकेतु परमात्मा की पुष्पपूजा करते करते तल्लीन बने थे और शुभ अध्यवसाय पूर्वक कालक्रम से चारों ही घाति कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान अल्पवय में प्राप्त किया था - यह बात परम पवित्र श्री कल्पसूत्र में दर्शायी गई है ।
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