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________________ भव में मोक्षगमन कर सकते हैं। इस प्रकार सामान्य केवली और तीर्थंकर में कोई अन्तर नहीं होता है। मात्र तीर्थंकर नामकर्म के विशिष्ट कक्षा के पुण्य का ही अन्तर होता है। बाकी वीतरागता केवलज्ञानादि सभी में सादृश्यता होती है। इसी प्रकार एक तीर्थंकर से दूसरे तीर्थंकर में भी कोई अन्तर नहीं होता है। देहाकृति तथा नामादि से ही भेद होता है और वह स्वाभाविक भेद ही होता है। बस, इसके सिवाय अन्य कोई भी भेद नहीं होता है। अतः सभी तीर्थंकर गुणादि की दृष्टि से एक जैसे ही है। जो जो तीर्थंकर होने वाले हो अथवा हो रहे हो, जिन्हें भी होना हो उन्हें इसी प्रक्रिया में से गुजरना पड़ता है - प्रथम सम्यक्त्व, व्रतधारणा चारित्रादि की उपासना, पूर्व के तीसरे भव में तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन और चरमभव में चारों ही घाति कर्मों का क्षय करना, वीतरागता - केवलज्ञान युक्त सर्वज्ञता आदि क्रमशः प्राप्त करना पड़ता है। इस शाश्वत राजमार्ग के सिवाय अन्य कोई विकल्प ही नहीं है। तीर्थंकर भगवंत अनिवार्य रूप से घर संसार-कुटुंब परिवार आदि सभी का त्याग करके साधुत्व स्वीकार करके विहार करते हैं, परिषह-उपसर्ग आदि सहन करते हैं, उसके पश्चात् ही उनके चार घाति कर्म का क्षय होने पर केवलज्ञानादि अनंत चतुष्टयी प्राप्त होती है। इसके सिवाय अन्य कोई मार्ग ही नहीं है। जिस प्रकार भरत चक्रवर्ती ने आरीसा भवन में केवलज्ञान प्राप्त किया था तथा पृथ्वीचन्द्र गुणसागर जैसे केवली महात्मा ने लग्न मण्डप में चौरी के फेरे देते समय केवलज्ञान प्राप्त किया - ऐसे किसी भी मार्ग पर तीर्थंकर कभी भी केवलज्ञान नहीं पाते हैं। उनके लिये यह राजमार्ग नहीं है। उनके लिये तो राजमार्ग एक ही है और वह है गृहस्थावस्था का त्याग, सर्व संग परित्याग करना चारित्र ग्रहण करके साधु बनना, परिषह-उपसर्ग सहन करना, तप-ध्यानादि की साधना में मरणांत उपसर्ग सहन करना, घोर तपश्चर्या उग्र विहारादि करके कर्मों की निर्जरा करना आदि उनके लिये राजमार्ग है। भगवान तीर्थंकर को जिस प्रक्रिया से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है वही सभी के लिये राजमार्ग है। इस प्रक्रिया से ही सभी सामान्य जीवों को केवलज्ञान प्राप्ति सरल है परन्तु अपवाद मार्ग से केवलज्ञान प्राप्त करना बहुत कठिन है। आत्मविकास की प्रक्रिया गुणस्थानारोहण में बताई है । तदनुसार आत्मा का विकास होना चाहिये । आतमा ऊपर उठती हुई १२वें गुणस्थान पर मोहनीय कर्म का समूल क्षय करती है । तेरहवें गुणस्थानक में प्रवेश करते ही केवलज्ञानादि प्राप्त 434
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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