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________________ जैन दर्शन की मान्यता ही भिन्न है। इसके सिद्धान्त ही अलग-स्वतंत्र हैं अर्थात् जैन दर्शन ईश्वर को Ready Made सीधे-सीधा अवतरित नहीं मानता है। ईश्वर ने अवतार नहीं लिया बल्कि ईश्वर यहीं से बने हैं, हमारे जैसे जीवों में से ही ईश्वर बने हैं। वे तथाप्रकार के कर्मावरण को दूर करके परिश्रमपूर्वक आत्मिक गुणों का संपूर्णतः प्रादुर्भाव करके ईश्वर-भगवान बने हैं। घातीकर्म चार हैं जिनमें १) मोहनीय कर्म का क्षय करके - वीतरागता प्राप्त की। २) ज्ञानावरणीय कर्म का संपूर्ण क्षय करके अनंतज्ञान (केवलज्ञान) प्राप्त किया। ३) दर्शनावरणीय कर्म का संपूर्ण क्षय करके - अनंतदर्शन (केवलदर्शन) की प्राप्ति की। ४) अन्तराय कर्म के सम्पूर्ण क्षय पर - अनन्त वीर्य - शक्ति - लब्धि की प्राप्ति की। इस प्रकार अपनी ही आत्मा पर कर्मों के जो आवरण थे उन कर्मावरणों को हटाकर - उनका क्षय करके प्रभु स्वात्म गुणों का ही प्रादुर्भाव करते हैं तथा पेरमात्म पद को प्राप्त करते हैं। यद्यपि इन चार घाती कर्मों का क्षय तो कोई भी कर सकता है, परन्तु जो जो सभी इन कर्मों का क्षय करते हैं वे सभी तीर्थंकर नहीं बन जाते हैं। तीर्थंकर बनने के लिए इन चार कर्मों के क्षय के साथ पूर्वोपार्जित तीर्थंकर नामकर्म का भी उदय होना अत्यंत आवश्यक है। सिद्ध होने अथवा मोक्ष में जाने के लिये प्रारंभ में इन चार घाती कर्मों का क्षय करना नितान्त आवश्यक है। केवल घाती कर्मों का क्षय करने वाले जीव को सामान्य केवली कहते हैं। केवलज्ञान - केवलदर्शन आदि चारों की दृष्टि से वे जीव तीर्थंकर परमात्मा के समान ही कहलाते हैं, एकमात्र तीर्थंकरत्व के सिवाय सारी ही सादृश्यता पूर्ण रूप से मिलती है। तीर्थंकर परमात्मा और सामान्य केवली के केवलज्ञान अथवा केवलदर्शन में रत्तिभर भी अन्तर नहीं होता है, उसी प्रकार वीतरागता भी समान ही होती है। मात्र तीर्थंकरत्व ही विशेष रूप से होता है। जो सामान्य केवली बन जाते हैं, वे केवली बन जाने के पश्चात् तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन नहीं कर सकते क्योंकि तीर्थंकर नामकर्म पूर्व के तीसरे भव में उपार्जन करने की प्रकृति है। अनिवार्य रूप से वह पूर्व के तीसरे भव में ही बाँधा जा सकता है। तत्पश्चात् बीच का एक भव वह जीव नरक में अथवा देवगति में बिताता है और अन्तिम भव में तीर्थंकर बनता है। एक ही भव में तीर्थंकर नामकर्म का बंध करना और उसे उदय में लाकर तीर्थंकर बनना संभव नहीं होता है अतः अनेक मोक्षगामी जीव चार घाती कर्मों का क्षय करके केवली-वीतरागी बनकर उसी 433
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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