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करनेवाली २७) विभ्रमादि विमुक्त - वक्ता के मन में भ्रान्तता, विक्षेप आदि दोष नहीं होते हैं। २८) अद्भूतत्व - अद्भूत होती है। २९) अनति विलम्बिता - अत्यंत विलम्ब रहित ३०) अनेक जाति वैचित्र्य - वस्तुओं का अनेक प्रकार से वर्णन करनेवाली ३१) आरोपित विशेषता - अन्य वचनों की अपेक्षा विशेषता दिखाने वाली ३२) सत्वप्रधानता - सत्वप्रधान ३३) वर्ण-पद-वाक्यविविक्तता - वर्ण, पद, वाक्य के स्पष्ट विवेकवाली ३४) अविच्छिन्नता - कहने की अर्थ शुद्धि तक रहने वाली ३५) अखेदत्व - वाणी बोलने वाले को तथा सुननेवाले को भी खेद, थकान या परिश्रम नहीं लगता है ।
इस प्रकार उपरोक्त ३५ गुणों से युक्त तीर्थंकर सर्वज्ञ प्रभु की वाणी होती है। अब विचार करके देखो कि ऐसी वाणी हो तो उसमें दोष की तिलभर भी संभावना कैसे रहेगी ? ऐसी इतने गुणों से युक्त वाणी सीधी ही गले उतरने योग्य होती है तथा सभी जीव श्रवण करते हैं। श्रोताओं के संशय नष्ट हो जाते हैं। मात्र नरकगति के जीवों को छोड़कर तीनों ही गति के जीव समवसरण में आते हैं, देशना श्रवण करते हैं और आनंदानुभूति करते हैं। प्रभु की वाणी के ये ३५ गुणों का समावेश वचनातिशय में होता है ।
अपायों का अर्थात् अनिष्टों का अपगम अर्थात् नाश होना। इसका अतिशय = अपायापगमातिशय कहलाता है, अर्थात् प्रभु जिस क्षेत्र में विचरण करते हैं उस क्षेत्र के मंडलाकार सवासौ योजन तक रोग, शोक, वैर, इतियाँ, मरण, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अकाल तथा स्वपरराष्ट्र भय अर्थात् युद्ध, आन्दोलन आदि नहीं होते हैं। यह सब अपायापगम अतिशय के प्रभाव से होता है ।
अनंत चतुष्टयीयुक्त परमात्मा ,
जैन दर्शन ने अरिहंत परमात्मा के जो जो गुण माने हैं वे सभी गुण अरिहंत परमात्मा ने स्वयं अपने कर्मों की निर्जरा करके उपार्जित किये हैं। हिन्दु धर्म या ईश्वर कर्तृत्ववादि दर्शन कहीं भी यह प्रक्रिया स्वीकार करते ही नहीं हैं। उन्होंने तो ईश्वर को Ready Made संपूर्णतः तैयार माल ही मान लिया है। उनके मतानुसार तो सर्वगुण सम्पन्न परिपूर्ण ईश्वर सीधे ही अवतरित होते हैं, अतः अन्य किसी भी प्रकार के गुणादि के प्रगटीकरण आदि का विचार करने का प्रश्न ही नहीं रहता है। इस जगत के सभी अच्छे गुण-अच्छे भाव आदि सब कुछ ईश्वर में होते ही हैं। ऐसा मान लिया जाए . . . . अन्य कुछ भी नहीं ।
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