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करती है, यही प्रक्रिया सर्व सामान्य जीवों के लिये है । जब भी किसी जीव आत्मा का विकास होगा तब इसी प्रक्रिया से ही होनेवाला है । इसमें कोई अन्तर नहीं पडता। अब केवलज्ञानादि की प्राप्ति के बाद थोडा अन्तर पडता है वह यह है कि जिन जीवों ने पूर्व के तीसरे भवमें तीर्थंकरनाम कर्म उपार्जन किया है उनके लिये देवता समवसरण आदि की रचना करेंगे परन्तु यह और ऐसी ही रचना सामान्य जीवों के लिये नहीं होगी । इतना बाह्य ही अन्तर है आभ्यंतर कक्षा दोनों की समान ही होती है । मोक्ष में जाने के लिये केवलज्ञान केवलदर्शन वीतरागतादि गुणों की नितान्त आवश्यकता होती है । इनके बिना मोक्षगमन संभव ही नहीं है ।
तीर्थंकर नामकर्म के विपाकोदय से अष्टप्रातिहार्यादि युक्त अरिहंत भगवान होते हैं । यही अरिहंत प्रभु चतुर्विध धर्मतीर्थ की स्थापना करके तीर्थंकर के रुप में पृथ्वीतल को पावन करते हुए सर्वत्र विचरण करते हैं अनेक भव्यात्माओं को धर्माभिमुख बनाते हैं और आयुष्य के समाप्ति काल में शेष चार अघाति कर्मों का क्षय करके, निर्वाण प्राप्त करके मोक्ष में सिधारते हैं अर्थात् सिद्ध परमात्मा बनते हैं। अंत में सभी को सिद्ध बनना ही है । सामान्य केवली बनकर श्री सिद्ध होना है और तीर्थंकर परमात्मा बनकर भी सिद्ध बनना है । सभी सिद्ध एक समान ही कहता हैं । एक सिद्ध से दूसरे सिद्ध में रत्तिभर भी अन्तर नहीं होता है । जहाँ तक सिद्ध नहीं बनते हैं वहाँ तक ही बाह्य अन्तर रहेगा । अरिहन्त - तीर्थंकर भी सिद्ध हुए हो तो उनकी भी वहाँ कोई अलग विशेष व्यवस्था हो, ऐसा नहीं है । जो सभी 'नमो सिद्धाणं' पद से एक साथ सभी नमस्करणीय बनते हैं ।
चार निक्षेप से अरिहंत की उपासना
जैन सिद्धान्त में चार निक्षेपों की व्यवस्था की गई है । वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रुप से हैं । किसी भी वस्तु या विषय का विस्तृत ज्ञान करने के लिए यह 1 चार निक्षेपों की व्यवस्था है । ज्ञान का विस्तरीकरण इन चार निक्षेपों से संभव है। यहाँ अरिहंत परमात्मा का विषय है । इन में भी ये चार निक्षेप घटित होते | द्रव्य अरिहंत, क्षेत्र अरिहंत, काल अरिहंत, और भाव अरिहंत । इस प्रकार अरिहंत का स्वरूप चार तरह से मननीय है । इन में नाम, स्थापना (आकृति) इन दोनों का समावेश करके विस्तार किया जाता है । सकलार्हत् स्तोत्र में हेमचन्द्राचार्य महाराज फरमाते हैं कि
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