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(१०) दुर्भिक्ष का अभाव :- दुर्भिक्ष अर्थात् दुष्काल - अकाल । प्रभु जहां विचरण करते हैं, उस विस्तार में चारों ओर कहीं भी अकाल प्रवर्तित नहीं होता है । सर्वत्र धन-धान्य का सुकाल ही होता है अथवा भिक्षा का अभाव सर्वथा रूक जाता है और सभी को भिक्षा सुलभ हो जाती है - इसे कहते हैं दुर्भिक्ष का अभाव।
(११) स्व-पर-चक्र भयनाश :- प्रभु विचरण करते हैं उस भूमि के विस्तार में स्व-पर-राष्ट्रों के युद्धों का भय नहीं रहता है । परचक्र भय अर्थात् शत्रु सैन्य द्वारा चढ़ाई तथा स्वचक्र भय अर्थात् अपने ही सैन्य में विद्रोह - फूट पडना - आन्तरविग्रह आदि नहीं होते हैं। __ये परमात्मा के घाति कर्मों के क्षय से उत्पन्न ११ प्रकार के अतिशय हैं अर्थात् प्रभु का पुण्य प्रभाव इतना व्यापक और विशाल है कि इनके पुण्य-प्रभावों से चारों
ओर इतना व्यापक परिणाम होता है। इन अतिशयों में देवता कुछ भी नहीं करते हैं, कहीं पर भी देवताओं का सहायभूत होना संभव ही नहीं है। देवतागण भक्तिवश जो करते हैं वे १९ अतिशय अलग ही हैं - देवकृत १९ अतिशय
खे धर्मचक्रं चमरी सपाद पीठं मृगेन्द्रासनमुज्जवलं च । छत्रत्रयं रत्नमयो ध्वजोऽधिन्यासे च चामीकर पंकजानि ॥ वप्रत्रयं चारू चतुर्माङ्गता, चैत्यद्रुमोऽधोवदनाश्च कण्टकाः । द्रुमानतिदुन्दुभिनाद-उचकै वातोऽनुकूल शकुनाः प्रदक्षिणाः ॥ गन्धाम्बुवर्ष-बहुवर्णपुष्प-वृष्टिः क चश्मश्रुनखाप्रवृद्धिः । चतुर्विधा निकाय कोटि जघन्यमावादपि पार्श्वदेशे ॥ ऋत्नामिन्द्रियार्थनामनुकूलत्वमित्यपि । एकोनविंशतिर्देव्याश्चस्त्रिंशच्च मीलिताः ॥
१) धर्मचक्र २) चँवर-चामर ३) मृगेन्द्रासन ४) छत्रत्रय ५) रत्नमय ध्वज ६) स्वर्णकमल ७) समवसरण रचना ८) चतुर्मुखपन ९) अशोक वृक्ष १०) अधोमुखी कण्टक ११) वृक्ष का झुकना १२) देवदुंदुभिनाद १३) सुखदायी वायु १४) शकुन १५) सुगंधित वृष्टि १६) अनेक वर्णवाले पुष्पों की वृष्टि १७) बाल, नख आदि का न बढ़ना १८) करोड़ देवता गण १९) सर्व ऋतुओं की अनुकूलता | देवकृत इन उन्नीस अतिशयों का वर्णन हेमचन्द्राचार्य रचित अभिधान चिंतामणि कोष में
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