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________________ क्षय से अनंतज्ञानादि चतुष्टयी प्रकट होती है अतः अनेक सूर्यों की अपेक्षा भी अधिक तेजस्वी मुखाकृति परमात्मा की होती है । जिससे प्रभु के दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं अतः प्रभु के शिर के पिछे एक भामंडल की रचना होने से प्रभु की सौम्य मुखाकृति के सभी लोग दर्शन कर सकते हैं । ( ४ ) निरोगिता :- अरिहंत परमात्मा का जहाँ जहाँ विचरण होता है वहाँ से चारों दिशा के सवासौ योजन के विस्तार की भूमि में ज्वरादि किसी भी प्रकार का उपद्रव नहीं होता है । - (५) वैर भाव का अभाव :- परमात्मा जहाँ जहाँ विहार करते हैं वहाँ से चारों ओर सवासौ योजन के परिसर में वैरभाव का अभाव हो जाता है और यदि पूर्व से हो तो उनका सर्वथा शमन भी हो जाता है । (६) सप्त इतियों का अभाव : प्रभु के विचरण क्षेत्र के सवासौ योजन परिसर में सात प्रकार की इतियाँ नहीं होती है- धान्य आदि को उपद्रव करने वाले, हानि पहुँचाने वाले चूहे, किट, कृमि आदि जीवों की उत्पत्ति नहीं होती है और न धान्यादि बिगाड़ते हैं । (७) महामारी प्लेग आदि का अभाव :- मारि अर्थात् अकाल औत्पातिक मृत्यु सामूहिक मरण, आकस्मिक दुर्घटना - आदि दुर्घटनाएँ प्रभु के विचरण क्षेत्र के सवासौ योजन के परिसर में नहीं होती हैं । - (८) अतिवृष्टि का अभाव :- वृष्टि अर्थात् वर्षा और अतिवृष्टि अर्थात् सतत निरन्तर बरसना, अपरिमित बरसात - बारिश होना । चारों ओर जल ही जल हो जाए ऐसी अत्यधिक बर्षा नहीं होती है । (९) अनावृष्टि का अभाव :- अवृष्टि अथवा अनावृष्टि अर्थात् वर्षा का सर्वथा अभाव । प्रभु जिस क्षेत्र में विहार करते हैं उस क्षेत्र में वर्षा का सर्वथा अभाव हो ही नहीं सकता है । यथोचित वर्षा अवश्य होती ही है । 427
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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