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________________ ३४ अतिशय :चार अतिशय मूलथी ओगणीस देवना कीध कर्म खप्या थी अग्यार चोत्रीश एम अतिशया, समवायांगे प्रसिद्ध । प्रथम जिने.॥ भगवान ऋषभदेव की स्तवना करते हुए पद्मविजयजी महाराज ने इस प्रकार ३४ अतिशयों का परिचय दिया है । ४ अतिशय जन्म से होते हैं इनका वर्णन पहले कर चुके हैं अतः पुनरोक्ति के भय से नहीं करता हुं । अब कर्मक्षय जन्य तथा देवकृत १९ अतिशयों का संक्षिप्त वर्णन करता हुं : कर्मक्षय जन्य ११ अतिशय : क्षेत्रे स्थितिर्योजनमात्रकेऽपि, नृदेवतिर्यग्जनकोटिकोटेः ॥५८॥ वाणी नृतिर्यक् सुरलोकमभाषा संवादिनी योजनगामिनी च । भामंडलं चारू चमौलिपृष्ठे, विडम्बिताहर्पतिमण्डल श्री ॥५९॥ साग्रे च गव्यूतिशतद्वपे सजा, वैरेतयो मार्यातिवृष्टयवृष्टयः । दुर्भिक्षमन्यस्वचक्रतो भयं, स्यानैत एकादश कर्मघातजाः ॥६०॥ (१) देव - मनुष्य तिर्यंच गति के करोड़ो जीव एक योजन मात्र जग्रह में समाकर देशना श्रवण करते हैं । (२) योजनगामिनी वाणी, (३) भामंडल (४) निरोगिता, (५) अवैरभाव (६) सप्त इतियों का अभाव, (७) मारी-महामारी न हो, (८) अतिवृष्टि न हो (९) अनावृष्टि न हो, (१०) अकाल न हो (११) स्व पर चक्र का भय व्याप्त न हो । ये ११ अतिशय अभिधान चिंतामणि में दर्शाए गए हैं ।। (१) एक योजन में समा जाते हैं :- प्रभु की देशना के समय एक योजन जितनी भूमि क्षेत्र में कोटा - कोटि अथवा असंख्य देवता, मनुष्य और तिर्यंच पशु-पक्षी आदि जो जो देशना श्रवण हेतु आए हो वे सभी समा जाते हैं अर्थात कम जगह में ज्यादा लोग-जीव-समा सकते हैं । (२) योजनगामिनी वाणी : समवसरण में विराजमान प्रभु जब देशना (प्रवचन) प्रदान करते हो तब परमात्मा की वाणी एक योजन विस्तारवाले क्षेत्र में सभी को अपनी - अपनी भाषा में स्पष्ट सुनाई देती है । (३) भामंडल - अतिशय ज्योतियुक्त प्रभु का मुखारविंद होता है । घाति कर्म के 426
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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