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________________ श्लोक में करते हैं - भोः भोः प्रमादमवधूय भजध्वमेन, मागत्य निर्वृतिपुरिं प्रति सार्थवाह । एतनिवेदयति देव ! जगत्त्रयाय मन्ये नदन्नभिनभः सुरदुंदुभिस्ते ॥ हे ! हे ! भव्य प्राणिओ ! प्रमाद का त्याग करके प्रभु को भजो, सेवा करो वास्तव में प्रभु क्या पधारे हैं मानो मोक्ष में ले जाने हेतु सार्थवाह के रुप में पधारे हैं, अतः जिसको जिसको मोक्ष में जाना हो वह सभी प्रमाद का त्याग करके भगवान की देशना श्रवण करने हेतु पधारो, ऐसा निवेदन देवदुंदुभि बजाते हुए देवता करते आतपत्र :- आठवां - अंतिम प्रातिहार्य है आतपत्र अर्थात तीन छत्र अथवा छत्रत्रय । प्रभु के मस्तक पर जो तीन छत्र रहते हैं वे प्रभु का त्रिभुवनपतित्व घोषित करते हैं । परमात्मा त्रिभुवनपति हैं, तीनों ही भुवनों के स्वामी हैं । एक छत्र ऊर्ध्वलोक, दूसरा अधोलोक और तीसरा ति लोक का सूचन करता है । ऐसे अष्ट-आठ प्रातिहार्यों से तीर्थंकर परमात्मा शोभित होते हैं । चार घाति कर्म के क्षय से और साथ ही तीर्थंकर नामकर्म की उत्कृष्ट पुण्यप्रकृति से देवतागण ये सभी रचना करते हैं । प्रभु स्वयं तो वीतरागी हैं । प्रभु को इन प्रातिहार्यो के साथ कुछ भी लेना-देना नहीं होता है, न उन्हें राग है न मोह है । ये देवतागण भक्तिवश होकर प्रभु की महिमा बढाने हेतु करते हैं प्रभु की भक्ति का लाभ सभी जीव भी ले सकें इस आशय से करते हैं परन्तु एक बात तो शत-प्रतिशत सही है कि भगवान तीर्थंकर के सिवाय अन्य किसी भी भगवान या देवेन्द्रों के लिये ये अष्ट प्रातिहार्यादि की रचना नहीं होती है । उपाध्यायजी महाराज भी इस बात का समर्थन करते हुए कहते हैं कि - ‘एह ठकुराई तुझ के बीजे नवि घटे रे' अर्थात् हे प्रभु ! यह सब एक मात्र तेरी ही ठकुराई है, अन्य में कहीं भी घटित नहीं होती है । इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि वे (अन्य भगवान) तीर्थंकर नामकर्म उपार्जित नहीं करते हैं, वे सर्वज्ञ - वीतरागी - तीर्थंकर ही नहीं है अतः उनके लिये ऐसी ठकुराई - ऐसा वैभव कहाँ से संभव हो सकता है ? यह तो तीर्थंकर नामकर्म की उत्कृष्ट पुण्यप्रकृति का ही परिणाम - फल है । ऐसी' प्रभुता - वैभव प्राप्त होते हुए भी वे वीतराग भाव से मुग्ध-आसक्त नहीं होते हैं । इसे भोगते भी नहीं, बल्की इससे अलिप्त ही रहते हैं। ऐसे तो अष्ट प्रातिहार्य ही नहीं, अन्य भी अनेक अतिशयादि होते हैं । 425
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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