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सिंहासन :- मृगेन्द्रासनमारुढे त्वयि तन्वति देशनाम् ।
श्रोतुं मृगाः समायान्ति, मृगेन्द्रमिव सेवितुम् ॥
तीन गढ़ के समवसरण की रचना करके त्रिभुवन के नाथ वीतराग परमात्मा के बैठने के लिये देवतागण सिंहासन की रचना करतें हैं । जिसमें मृगेन्द्र अर्थात् सिंह, आसन अर्थात् बैठने का साधन मात्र । सिंहाकृति से युक्त आसन अर्थात् सिंहासन । ऐसे सिंहासन में बैठकर प्रभु देशना फरमाते हैं फिर भी हिरण वगैरह प्राणी देशना श्रवण करने आते हैं । इस सिंहासन को भूल से भी कोई मृगचर्म न मान ले अतः स्पष्ट करते हुए बताते हैं कि यह सिंहासन सोने का होता है ।
६. भामंडल :- यह भामंडल नामक प्रातिहार्य देवता नहीं बनाते हैं, परन्तु स्वयं परमात्मा के घाति कर्मों के क्षय से निर्मित है । चारों ही घाति कर्मों का क्षय हो जाने के बाद केवलज्ञान केवलदर्शन प्राप्त होने से प्रभु का मुखारविन्द “ आइच्चेसु अहियं पयासयरा” अनेक आदित्य-सूर्यों से भी अधिक प्रकाशमान होता है । ऐसा नामस्तव-लोगस्स सूत्रादि में पाठ मीलता है । आज हम सामान्य रुप से भी आकाश में एक सूर्य के सामने निरी आँख से देखने में समर्थ नहीं है, देख नहीं सकते हैं क्योंकि सूर्य के प्रकाश से आँखे चकाचौंध हो जाती है, जब कि प्रभु का मुख तो एक नहीं, अनेक सूर्यों की अपेक्षा अधिक प्रकाशमान होता है, इसीलिए ही प्रभु के दर्शन कैसे हो सकता है ? संभव ही नहीं है । भगवान समवसरण में देशना देने हेतु बिराजमान होते हैं, समवसरण में बारह पर्षदा में तीन गति के जीव देशना श्रवण करने के लिए बैठते हैं, तब यदि प्रभु का मुख देखा ही न जा सके तो फिर देशना - श्रवण में रस कैसे आएगा ? अतः देवता गण प्रभु के मस्तक के पीछे एक आभामंडल की रचना करते हैं (ऐसी कवि ने कल्पना की है ।) जिससे प्रभु का मुखारविन्द सौम्य बन जाता है, सभी जीव शांत होकर प्रभु के दर्शन कर सकते हैं। भामंडल अर्थात् ज्योति-प्रकाश पुंजका आभामंडल, यह घातिकर्मों के सर्वथा क्षय होने से उत्पन्न होता है ।
७. देव दुर्दुभिः- दुंदुभि एक प्रकार के वाद्ययंत्र का नाम है । जो भेरी आदि जैसा होता है । इसे देवता बजाते हैं अतः देव दंदुभि कहते हैं। देवाधिदेव तीर्थंकर परमात्मा विहार करते हो अथवा समवसरण में देशनार्थ पधारते हो, तब देवता चारों ओर देवदुंदुभि बजाकर लोगों को निवेदन करते हैं ऐसा वर्णन कल्याण मन्दिर के निम्न
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